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________________ महापापियों के संसर्ग का प्रायश्चित्त विधि से जातिच्युत कर दिया जाता था (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २७)। किन्तु इस विषय में पुरुष तथा नारी में अन्तर था। पतित नारी को यों ही मार्ग पर नहीं त्याग दिया जाता था, प्रत्युत उसे घास-फूस से बनी झोपड़ी में रख दिया जाता था, आगे के अपराध से उसे रक्षित किया जाता था, उसे इतना ही भोजन दिया जाता था कि वह जी सके और पहनने के लिए पुराने वस्त्र दिये जाते थे (मनु ११३१०६ एवं याज्ञ० ३।२९६) । याज्ञ० (३।२९७) के मत से स्त्रियों के लिए कुछ विशिष्ट कर्म निन्द्य माने जाते हैं, यथा--नीच जाति के पुरुष से संभोग करना, भ्रूण-हत्या करना (गर्भ गिराना) एवं पति की हत्या करना। वसिष्ठ (२१।१०) ने चार प्रकार की नारियों को सर्वथा त्याज्य माना है, अर्थात उन्हें भरण-पोषण आदि के लिए भी अयोग्य ठहराया है, यथा-शिष्यगा (जो पति के शिष्य से संभोग करती है), गुरुगा (जो पति के गुरु से संभोग करती है), पतिघ्नी (जो पति की हत्या करनेवाली होती है) तथा बुंगितोपगता (जो किसी नीच जाति से रमण करती है)। वसिष्ठ (२१।१२) के मत से तीन उच्च वर्गों की जो स्त्री शूद्र से संभोग करती है वह यदि सन्तानवती न हो जाय तो उचित प्रायश्चित्त से शुद्ध कर ली जा सकती है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४। अब हम महापातकियों के संसर्ग में आनेवाले लोगों के प्रायश्चित्त के विषय में चर्चा करेंगे। मनु (११।१८१), विष्णु (५४११) एवं याज्ञ० (३।२६१) का कथन है कि जो भी कोई महापातकियों का संसर्ग (याज्ञ० के मत से वर्ष भर ) करता है उसे संसर्ग-पाप से मुक्त होने के लिए महापातक वाला ही व्रत (प्रायश्चित्त) करना पड़ता है। कुल्लूक एवं प्राय० सार (पृ० ६१) का कथन है कि यहाँ व्रत शब्द प्रयुक्त हुआ है, अतः केवल १२ वर्षों वाला प्रायश्चित्त करना पड़ता है, मृत्यु का आलिंगन नहीं करना पड़ता।" यदि संसर्ग अज्ञानवश हो तो प्रायश्चित्त आधा होता है। व्यास ने ज्ञान में किये गये संसर्ग के लिए ३/४ प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। प्राय० वि० (पृ० १७१) के मत से ब्राह्मण एवं शूद्र के संसर्ग के विषय में प्रायश्चित्त में कोई अन्तर नहीं था, यद्यपि अन्य बातों में प्रत्येक वर्ण के लिए १/४ छूट दी जाती थी। यदि संसर्ग एक वर्ष से कम का होता था तो उसी अनुपात से प्रायश्चित्त में छूट मिलती थी। केवल पतित ही निन्द्य नहीं माना जाता था, प्रत्युत पतित होने के उपरान्त उत्पन्न पुत्र भी पतित माना जाता था और उसे उत्तराधिकार से वंचित कर दिया जाता था। किन्तु पतित की पुत्री के साथ ऐसा नियम नहीं था, उसके पृ० ११२४, प्राय० वि० पृ० ३७१); एवं दोषश्च शुद्धिश्च पतितानामुदाहृता । स्त्रीणामपि प्रसक्तानामेष एव विधिः स्मृतः॥ कात्यायन (मिता०, याज० ३।२६०)। व्रतं यच्चोदितं पुंसां पतितस्त्रीनिषेवणात् । तच्चापि कारयेन्मूढां पतितासेवनात् स्त्रियम् ॥ अंगिरा (प्राय० वि० पृ० ३७२)। १२. चततस्तु परित्याज्याः शिष्यगा गुरुगा च या। पतिघ्नी च विशेषेण मुंगितोपगता च या॥ वसिष्ठ (२१३१०, मिता०, याज्ञ० ३।२९७ एवं अपराकं पृ० १२०८, याज्ञ० १७२)। मिताक्षरा ने यह श्लोक व्यास का माना है और 'जंगित' को 'प्रतिलोमजश्चर्मकारादिः' कहा है। दीपकलिका ने 'कुत्सितः प्रतिलोमजः' माना है। प्राय० वि० (१० ३७४) ने इसे अंगिरा का माना है और 'जुंगितः कुत्सितो हीनवर्णः' कहा है। १३. अत्र च ब्रह्महादिषु यद्यपि कामतो मरणान्तिकमुपदिष्टं तथापि संसर्गिणस्तन्नातिदिश्यते । स तस्यैव वतं कुर्यादिति व्रतस्यैवातिदेशात । मरणस्य च वतशब्दवाच्यत्वाभावात् । अतोऽत्र कामकृतेऽपि संसर्ग द्वादशवार्षिकमकामतस्तु तदर्षम् । मिता० (याश० ३।२६१) । और देखिए मदनपारिजात (१० ८५३)। १४. यो येन संवसेद्वषं सोऽपि तत्समतामियात् । पादहीनं घेरत्सोऽपि तस्य तस्य व्रतं द्विजः॥ व्यास (मिता०, याश० ३।२६१, कुल्लूक, मनु ११११८१)। ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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