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________________ प्रायश्चित्तों की व्यवस्था और परिषद की मान्यता १०५५ कर ('कामतः') किये गये पापों के लिए अनजान में ('अकामतः') किये गये पापों की अपेक्षा दूना प्रायश्चित्त होता है। याज्ञ० (३।२२६) ने 'अज्ञान' एवं 'ज्ञानपूर्वक' होनेवाले पापों के फलों में सम्भवतः कोई अन्तर नहीं प्रकट किया है। प्रायश्चित्तों एवं वैधानिक दण्डों में पापी की जाति पर विचार होता था। देखिए इस विषय में इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय १५, जहाँ विस्तार से वर्णन है। विष्णु (प्राय० वि०, पृ० १०२; प्राय० प्रक०, पृ० १६) के मत से क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र को क्रम से ब्राह्मण पापी के प्रायश्चित्त का ३३ एवं लगता है। यही बात अग्नि० (१६८।१३) में भी है। और देखिए परा० माध० (२, भाग १, पृ.० २३१) एवं मिता० (याज्ञ० ३।२५०)। बृहद्यम (४।१३. १४) ने गोहत्या के लिए चारों वर्गों में कम से ४, ३, २ एवं १ का अनुपात दिया है। अंगिरा (३) ने अन्त्यज के यहाँ भोजन करने पर ब्राह्मण के लिए कृच्छ एवं चान्द्रायण प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है, किन्तु इसी के लिए क्षत्रिय एवं वैश्य को केवल आधे की व्यवस्था दी है। मिताक्षरा (याज्ञ० २१२५०) ने कहा है कि हत्या करने पर ब्राह्मण को जो प्रायश्चित्त करना पड़ता है उसका दूना क्षत्रिय को तथा तिगुना वैश्य को करना पड़ता है। स्मृतिचन्द्रिका, मदनरत्न (व्यवहार) एवं सरस्वतीविलास के मतों से प्रकट होता है कि आरम्भिक काल के प्रायश्चित्त-सम्बन्धी जाति-अन्तर बारहवीं शताब्दी के उपरान्त समाप्त हो गये। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २३ । आगे चल कर कठिन प्रायश्चित्तों की परम्पराएँ समाप्त-सी होती चली गयीं और उनके स्थान पर गोदान एवं अर्थदण्ड की व्यवस्था बढ़ती चली गयी। देखिए प्रायश्चित्तप्रकरण (पृ० २२), जहाँ यह लिखित है कि उसके काल में क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र की हत्या के लिए किये जानेवाले प्रायश्चित्त अप्रचलित हो गये थे। देश के नियमों के अनुसार भी प्रायश्चित्तों में भेद था। हम जानते हैं कि कुछ भागों में, यथा-दक्षिण की कुछ जातियों में मातुल-कन्या (ममेरी बहिन) से विवाह होता है, क्योंकि वहाँ ऐसी रीति या आचार ही है, किन्तु मनु (११११७१-१७२), बौधा० घ० सू० (१।१।१७-२४) एवं अन्य स्मृतियों ने इस प्रथा को निन्द्य एवं घृणित माना है। बृहस्पति ने दक्षिणियों में इसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था अथवा राजा द्वारा दण्ड दिये जाने की बात नहीं उठायी है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ९। प्रायश्चित्तों की कठोरता एवं अवधि व्यक्ति के प्रथम बार अपराध करने या कई बार दुहराने पर भी निर्भर थी। आप०४० सू०१२।१०।२७।११-१३) के मत से उस ब्राह्मण को जो अपनी जाति की किसी विवाहित नारी से चार करता है, उसे शूद्र के प्रायश्चित्त का आधा करना पड़ता है, जो तीन उच्च वर्गों की स्त्री से संभोग करने के अपराध के कारण करता है। इस पाप के दहराने पर चौथाई और बढ़ जाता है, किन्तु चौथी बार हराने से पूरी अवधि (अर्थात १२ वर्षों तक प्रायश्चित्त करना पडता है। मिता० (याज्ञ० ३।२९३) ने कहा है कि ज्ञान में किये गये पाप के लिए अज्ञान में किये गये पाप की अपेक्षा इन्हें दूना प्रायश्चित्त करना पड़ता है, किन्तु वही पाप दुहराने पर अज्ञान में किये गये पाप के प्रायश्चित्त का चौगुना प्रायश्चित्त और करना पड़ता है। आश्रमों के अनुसार भी प्रायश्चित्त की गुरुता या हलकेपन में अन्तर था। गहस्थों की अपेक्षा अन्य आश्रम वालों को उसी अनपात से अधिक प्रायश्चित्त करना पड़ता था। मनु (५।१३७), वसिष्ठ (६।१९), विष्णु (६०।२६) एवं शंख (१६।२३-२४) के मत से गृहस्थों की अपेक्षा ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थों एवं संन्यासियों को क्रम से दना, तिगना एवं चौगना प्रायश्चित्त करना पड़ता था और तभी वे शुद्ध माने जाते थे (देखिए मनु ५।१३६, विष्णु० ६०।२५)। हारीत, व्यास एवं यम (प्राय० वि०प० ८६) के मत से यदि कोई प्रायश्चित्त करने की अवधि के बीच में ही (कभी-कभी कुछ प्रायश्चित्त १२ वर्ष या इससे भी अधिक समय तक चलते थे) मर जाय तो वह पाप से मुक्त हो जाता है, इस पाप से दोनों लोकों (इह लोक एवं परलोक) में छुटकारा मिल जाता है। यह एक दया सम्बन्धी छूट है तथा सचमुच सुविधाजनक भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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