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________________ २०५४ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रायश्चित्तविवेक, प्रायश्चित्ततस्य, स्मृतिमुक्ताफल ( प्रायश्चित्त वाला प्रकरण ), प्रायश्चित्तसार (नृसिंहप्रसाद का भाग), प्रायश्चित्तमयूख, प्रायश्चित्तप्रकाश, प्रायश्चित्तेन्दुशेखर ( नागोजिभट्ट लिखित ) । प्रायश्चित्तों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन निम्न पुस्तकों में मिलता है; प्रायश्चित्तविवेक, पराशरमाधवीय (२, भाग १ एवं २) एवं प्रायश्चित्तप्रकाश । टीकाकारों ने प्रायश्चित्त के अधिकारी के प्रश्न पर विचार किया है । मनु (११।४४) एवं याज्ञ० (३।२१९) ने क्रम से 'प्रायश्चित्तीयते नरः' एवं 'नरः पतनमृच्छति' उक्तियों में 'नर' शब्द का प्रयोग किया है, अतः टीकाकारों एवं निबन्धकारों ने यह घोषित किया है कि प्रायश्चित्तों के लिए सभी अधिकारी हैं, यहाँ तक कि चाण्डाल, प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न एवं सभी जातियों के लोग। देखिए विश्वरूप (याज्ञ० ३।२१०), मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२१९), प्राय ० वि० ( पृ० १२) । याज्ञ० ( ३।२६२ ) का कथन है कि शूद्र पापी भी, जिन्हें वैदिक मन्त्रों के उच्चारण का अधिकार नहीं है, जप एवं होम के अतिरिक्त सभी नियमों का पालन करके शुद्ध हो सकते हैं। और देखिए अंगिरा (मिता०, याज्ञ० ३।२६२, प्राय० म० पृ० १२ एवं प्रा० सार पृ० १७३ ) । जप एवं होम के विषय में भी मदनपारिजात (१० ७४९) एवं व्यवहारमयूख ( पृ० ११२ ) ने पराशर (६।६३-६४ ) के एक श्लोक के आधार पर यह कहा है कि साधारण अग्नि ( लौकिक अग्नि) में किसी ब्राह्मण द्वारा स्त्रियों एवं शूद्रों के लिए जप एवं होम किये जा सकते हैं। प्रायश्चित - विवेक ने मनु (१०।६२) एवं देवल के एक गद्यांश के आधार पर कहा है कि चाण्डाल भी अपने नियमों के विरुद्ध जाने पर प्रायश्चित्त कर सकते हैं। इसके पूर्व कि हम प्रायश्चित्तों का विवरण उपस्थित करें, हमारे लिए कुछ प्रश्नों पर विचार कर लेना आव श्यक है। बृहद्यम (३।१-२ ), शंख आदि स्मृतियों का मत है कि पाँच वर्ष से ऊपर एवं ग्यारह वर्ष से नीचे के बच्चों के लिए सुरापान आदि पातकों के अपराध में स्वयं प्रायश्चित्त करना आवश्यक नहीं है, उनके स्थान पर उनके भाई, पिता या कोई सम्बन्धी या सुहृद् को प्रायश्चित्त करना पड़ता है, और पाँच वर्ष से नीचे की अवस्था के बच्चों को न तो पाप न प्रायश्चित्त करना पड़ता है और न उन पर कोई वैधानिक कार्रवाई ही होती है। किन्तु मिता० ( याज्ञ० ३।२४३) ने कुछ और ही कहा है, उसका मत है कि बच्चों को भी पाप लग जाता है किन्तु हलका सा ही। यही बात बृहस्पति ने भी कही है ( प्राय० तत्त्व, पृ० ५५१ ) । लगता हमने पहले ही देख लिया है कि प्रायश्चित्त-प्रयोग काल, स्थान, वय आदि परिस्थितियों के अनुसार ही होता है । ८० वर्ष के बूढ़ों, १६ वर्ष से नीचे के बच्चों, स्त्रियों एवं रोगियों को व्यवस्थित प्रायश्चित्तों का आधा करना पड़ता है । इस विषय में देखिए विष्णुधर्मसूत्र ( ५४ ३३), लघु हारीत (३३), देवल (३०), आपस्तम्बस्मृति ( ३३ ), बृहद्यम (३1३), मदनपारिजात ( पृ० ७९६), मिता (याज्ञ० ३ । २४३ ) । मिता० ( याज्ञ० ३।२४३ ) ने सुमन्तु का उद्धरण देकर कहा है कि पुरुष के लिए १२ वर्ष से नीचे एवं ८० वर्ष से ऊपर प्रायश्चित्त आघा और स्त्रियों के लिए चौथाई होता है। विष्णु का मत है कि स्त्रियों, बूढ़ों एवं रोगियों के लिए आधा एवं उपनयन के पूर्व बच्चों के लिए चौथाई प्रायश्चित्त माना जाता है। कुछ लोगों ने पाँच वर्ष से नीचे के बच्चों के लिए चौथाई प्रायश्चित्त निर्धारित किया है । च्यवन ( गद्य में) ने बच्चों, बूढ़ों एवं स्त्रियों के लिए इसे आधा माना है और कहा है कि १६ वर्ष तक व्यक्ति बालक रहता है और यही बात ७० वर्ष के उपरान्त बूढ़ों के लिए भी है, अर्थात् वे भी बालक जैसे समझे जाते हैं । कात्यायन (४८७) का मत है कि स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा आघा अर्थ-दण्ड लगता है, जहाँ पुरुष को मृत्यु - दण्ड मिलता है वहाँ स्त्रियों का अंग-विच्छेद (नाक, कान आदि काट लेना) ही पर्याप्त है। अंगिरा (प्राय० वि० पृ० २२), व्यास (प्राय० बि० पृ० २४) एवं अग्नि० ( १७३।९ ) के मत से जान-बू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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