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________________ १०४८ धर्मशास्त्र का इतिहास रूप से लेकर आगे के सभी धर्मशास्त्रकारों द्वारा स्मृतिवचनों को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए अपनायी गयी है, मले ही वे तर्कसंगत न हों और अतिशयोक्ति से भरे-पूरे हों। प्रायश्चित्ततरव ( पृ० ५४४ - ५४५ ) ने मिताक्षरा द्वारा प्रतिपादित पाप की दो शक्तियों एवं याज्ञवल्क्य ( ३।२९८ ) से सम्बन्धित उसके निर्देशों को उद्धृत कर कहा है कि बृहस्पति के निम्न वचन का सहारा लेना चाहिए; "केवल शास्त्र के शब्दों के आधार पर ही निर्णय नहीं करना चाहिए, प्रत्युत निर्णय तर्कसंगत होना चाहिए; 'स्त्रियों के हत्यारों' नामक वचन व्यभिचारिणी स्त्रियों की ओर संकेत नहीं करता. प्रत्युत वह निर्दोष स्त्रियों की ओर निर्देश (यथा अपने शत्रुओं की पत्नियों की ओर निर्देश) करता है।" नारद ( साहस, श्लोक ११) का कथन है कि उन लोगों को, जो राजा द्वारा प्रथम या द्वितीय (मध्यम) प्रकार के दण्ड से दण्डित होते हैं, समाज के अन्य सदस्यो से मिलने-जुलने की अनुमति मिलती है, किन्तु उत्तम प्रकार के अर्थात अधिकतम दण्ड पाने वाले को नहीं । जो लोग प्रायश्चित्त कर लेने के उपरान्त भी पापी की संसर्ग - सम्बन्धी अयोग्यता के मत का समर्थन करते हैं वे वेदान्तसूत्र ( ३ | ४ ४३, बहिस्तूभयथापि स्मृतेराचाराच्च) का सहारा लेते हैं । किंतु परा० मा० ने ठीक ही कहा है कि यह सूत्र उन लोगों की ओर संकेत करता है जो जीवन भर ब्रह्मचर्य के पालन का व्रत लेकर उसे छोड़ देते हैं (उसके अनुसार नहीं चलते हैं), न कि यह सूत्र गृहस्थों की ओर संकेत करता है। यही बात परा० मा० के मत से कौशिक भी कहते हैं | देखिए स्मृतिमुक्ताफल ( प्रायश्चित्त, पृ० ८६७ - ८६८ ) । प्रायश्चित्तमयूख ( पृ०७ ) का कथन है कि शंकराचार्य ने याज्ञ० (३।२२६) को पढ़ने के उपरान्त ही वेदान्त-सूत्र ( ३ | ४१४३) की व्याख्या की है और कहा है कि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत ( आजीवन ब्रह्मचर्य या संन्यास) से च्युत हो जाते हैं वे ही समाज-संसर्ग से वंचित होते हैं । एक प्रश्न पूछा जा सकता है; प्रायश्चित्त पाप को नष्ट करता है, ऐसा क्योंकर माना जाय ? उत्तर है-कौन सा पाप महापातक है या उपपातक है या बिल्कुल पाप नहीं है, इसकी व्यवस्था शास्त्र (श्रुति एवं स्मृति ) ने दी है। उदाहरणार्थ, साधारण जन के समक्ष यह नहीं प्रकट हो पाता कि खानों के अध्यक्ष होने, नीच लोगों से मित्रता करने शूद्र की नौकरी करने से पाप क्यों लगता है। किन्तु स्मृतियाँ ऐसा कहती हैं, अतः हमें इसे मानना पड़ेगा । यदि पापमय कृत्यों की जानकारी के लिए हमें स्मृतियों पर निर्भर रहना ही है तो यह निष्कर्ष निकालना ही पड़ता है कि उन स्मृतियों पर भी, जो पापमोचन के लिए प्रायश्चित्तों की व्यवस्था देती हैं, विश्वास करना होगा । भगवद्गीता (४१३७ ) IT कथन है कि आध्यात्मिक ज्ञान की अग्नि सभी (संचित) कर्मों ( एवं उनके फलों) को जला डालती है। या बहुत-से पापों के लिए (सभी नहीं), जिनके लिए प्रायश्चित्तों की व्यवस्था है, राजा या राज्य से भी दण्ड मिलता है। उदाहरणार्थ, सभी देशों में आजकल और प्राचीन एवं मध्य काल में भी हत्या, चोरी, व्यभिचार, कूटसाक्ष्य (झूठी गवाही) जैसे कृत्यों के लिए राज्य द्वारा दण्ड की व्यवस्था रही है। इन कृत्यों के अपराधियों को प्रायश्चित्त भी करने पड़ते थे । सम्भवतः दो प्रकार की दण्ड-व्यवस्था के कारण ही प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत की दण्ड-व्यवस्था पश्चिमी देशों Art अपेक्षा हलकी थी । पश्चिमी देशों में अभी एक-दो शताब्दी पूर्व तक साधारण अपराधों के लिए भारी-भारी दण्डों की व्यवस्था थी। कुछ ऐसे कर्म भी हैं जिनके लिए राज्य की ओर से आज और सम्भवतः प्राचीन या मध्यकालीन भारत भी, दण्ड की व्यवस्था नहीं थी, यथा- पूर्व अधीत वेद का विस्मरण, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के उपरान्त सोना ( यह पातक माना जाता था, वसिष्ठ १।१९; कुछ ऐसे पातक याज्ञ० ३।२३९ के अनुसार उपपातक मात्र हैं), अग्निहोत्र आरम्भ कर उसे छोड़ देना (उससे सम्बन्धित कृत्य न करना) । ऐसा नहीं प्रकट होता कि इन कर्मों के लिए किसी भारतीय वचनस्यातिभारोऽस्ति ।' अतश्च यद्यपि व्यभिचारिणीनां वधेऽल्पीय एवं प्रायश्चित्तं तथापि वाचनिकोऽयं संम्यवहारप्रतिषेधः । मिता० ( याज्ञ० ३।२९८ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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