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________________ ज्ञानकृत पाप प्रायश्चित से कटते हैं कि नहीं ? भाग्य के कारण कोई पाप कृत्य करता है और प्रायश्चित्त-सम्पादन का भागी हो जाता है, तो वह जब तक प्रायश्चित्त नहीं कर लेता तब तक सुधी जनों के सम्पर्क में उसे नहीं ही जाना चाहिए।" आप० घ० सू० ( ११९ । २४।२४-२५) ने व्यवस्था दी है - "यदि कोई व्यक्ति गुरु (पिता, वेद- शिक्षक आदि) को या उस ब्राह्मण को, जो वेदज्ञ है और जिसने सोमयज्ञ समाप्त कर लिया है, मार डालता है, तो उसे मृत्यु पर्यन्त इन नियमों (आप ० ध० सू० १ १९ | २४|१०-३२) के अनुसार चलना चाहिए। वह इस जीवन में इस दुष्कृत्य के पाप से मुक्ति नहीं पा सकता। किन्तु उसका पाप उसकी मृत्यु पर कट जाता है ।" इससे प्रकट होता है कि मृत्यु- पर्यन्त चलता हुआ प्रायश्चित्त पाप को नष्ट कर देता है। यही मत अंगिरा, यम आदि का भी है। स्मृतियों द्वारा उपस्थापित विभिन्न मतों का समाधान मिताक्षरा ( याज्ञ०३।२२६) ने किया है, जो सभी मध्य काल के लेखकों को मान्य है । उसकी उक्ति है— पापों के फल एवं शक्ति दो प्रकार की हैं, यथा-नरक की प्राप्ति एवं पापी का समाज के सदस्यों द्वारा बहिष्कार। अतः यदि प्रायश्चित्त पापी को नरक से न बचा सके तो भी उसके द्वारा समाज-संसर्ग -स्थापन अनुचित नहीं कहा जा सकता ! जो पापकृत्य पतनीय ( जातिच्युत करने वाले ) नहीं हैं वे मनु (११।४६ ) के कथन द्वारा प्रायश्चित्त से अवश्य नष्ट हो जाते हैं। वे पाप भी जो पतनीय हैं और जान-बूझकर किये गये हैं, आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १/९/२४ । २४-२५ एवं १|१०|२८|१८ ) के कथम से मृत्यु पर्यन्त चलने वाले प्रायश्चित्तों से दूर हो सकते हैं (मनु ११।७३, याज्ञ० ३।२४७-२४८, गौतम २२।२-३, ब्राह्मण हत्या के लिए; मनु १९९०-९१, याज्ञ० ३।२५३, गौतम २३|१, सुरापान के लिए; गौतम २३।८-११, मनु ११।१०३-१०४, याज्ञ० ३।२५९, गुरु- पत्नी से संभोग के लिए; मनु ११।९९-१०० एवं याज्ञ० ३।२५७, ब्राह्मण के सोने की चोरी के लिए) । प्रायश्चित्तमुक्तावली जैसे मध्यकाल के निबन्धों का कथन है कि ब्राह्मण पापियों के विषय में मृत्यु पर्यन्त चलनेवाला प्रायश्चित्त कलिवर्ज्य मतानुसार वर्जित है, अतः हत्यारे ब्राह्मण के लिए केवल बारह वर्षों का प्रायश्चित्त ही पर्याप्त है। पराशरमाधवीय (२, भाग १, पृ० २०१-२०३) ने मिताक्षरा का मत प्रदर्शित किया है और लगता है इसने उसे स्वीकृत भी किया है। इसने एक मत और दिया है। जो लोग इसे मानते हैं उन्होंने याज्ञ० ( ३।२२६) के 'कामतोव्यवहार्यस्तु' को 'अवग्रह' के साथ पढ़ा है और अर्थ लगाया है कि जिसने किसी पाप के लिए व्यवस्थित प्रायश्चित्त कर लिया है वह नरक में नहीं गिरता, किन्तु यदि उसने जान-बूझकर कोई अपराध किया है तो वह शिष्टों से मिलने की अनुमति नहीं पा सकता । मनु ( ११।१९० = विष्णु ० ५४ । ३२ ) में आया है कि जो बच्चों की हत्या करता है, जो अच्छा करने पर बुरा करता है, जो शरण में आगत की हत्या कर डालता है, जो स्त्रियों का हत्ता है, ऐसे व्यक्ति के साथ, भले ही उसने उचित प्रायश्चित्त कर लिया हो तब भी संसर्ग नहीं रखना चाहिए। इसी प्रकार का एक श्लोक याज्ञ० का भी है ( ३।२९८) जिस पर विज्ञानेश्वर ने बहुत ही मनोरंजक टिप्पणी की है, जो मध्यकाल के लेखकों की उस भावना की योतक है जिसे वे वैदिक या स्मृति वाक्यों की तथाकथित प्रामाणिकता से परेशान होकर व्यक्त करते रहते थे। मिताक्षरा का कथन है- " याज्ञ० ( ३।२९८ ) ने जो निषिद्धता प्रदर्शित की है वह केवल प्राचीन वचनों (उक्तियों) पर आधारित है न कि तर्क पर 'वचन' क्या नहीं कर सकते हैं ? वचन से भारी कुछ नहीं है। इसलिए यद्यपि व्यभिचारिणी स्त्री की हत्या के लिए हलके प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी गयी है तथापि उस हत्यारे के लिए 'वचनों' पर आधारित यह नियम बना है कि उसके साथ कोई संसर्ग नहीं कर सकता।""" । यह उक्ति शाबर भाष्य से ली गयी है और विश्व ܕ १३. प्रायश्चित्तेन क्षीणदोषानपि न संव्यवहरेदिति वाचनिकोऽयं प्रतिषेधः । 'किमिति वचनं न कुर्यान हि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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