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________________ तीर्थ-सम्बन्धी निष्कर्षात्मक वक्तव्य हमने आरम्भ में ही २०वीं शताब्दी के भारतीयों की पर्वतों, नदियों एवं पुनीत स्थलों से सम्बन्धित मनोवृत्तियों के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिख देने की ओर संकेत कर दिया था। आधनिक धर्म-निरपेक्ष शिक्षा तथा वर्तमान आर्थिक दशाओं एवं विभिन्न प्रकार की प्रवत्तियों ने नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए न कुछ-सा छोड़ रखा है। हम लोग चिन्ता, अभाव, दारिद्रय, निर्ममता एवं अपराध-वृत्तियों से आबद्ध-से हो उठे हैं। अतः इन परिस्थितियों में उन लोगों का, जो देश का कल्याण चाहते हैं, यह कर्तव्य हो जाता है कि उन आचरणों को वे अवश्य महत्त्व दें, अथवा उन्हें तदनकल महत्ता दें जो हम सभी को संकीर्णता से दूर कर कुछ क्षणों के लिए उच्च आशयों एवं अभिकांक्षाओं के प्रति मननशील बनाते हैं और भौतिकवाद के व्यापक स्वरूप से तटस्थ रहने की प्रेरणा देते हैं। तीर्थ-यात्रा इन्हीं समुदायों अथवा संस्थाओं में एक है। उन लोगों को, जिन्हें यह विश्वास है कि तीर्थयात्रा से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, पुण्य प्राप्त होते हैं तथा इस संसार से छुटकारा मिलता है, तीर्थयात्रा को नये रंग में डालना होगा और देखना होगा कि उनकी दान-दक्षिणा ऐसे भ्रष्ट पुरोहितों को न प्राप्त हो जो प्रमादी एवं ज्ञानरहित हैं, और उन्हें तीर्थस्थलों पर प्रयुक्त पूजा-पद्धतियों में सुधार करना होगा जिससे स्वास्थ्य-सम्बन्धी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। पुरोहित वर्ग के लोगों को अब यह स्मरण रखना चाहिए कि आनेवाली पीढ़ियों में अब उनकी तीर्थसम्बन्धी वृत्ति समाप्त-सी हो जानेवाली है। प्राचीन परम्पराएँ उन्हें तभी सुदृढ रख सकती हैं जब कि वे अपने तथाकथित धार्मिक कार्यकलापों में परिवर्तन करें, प्रमाद एवं अज्ञानता से दूर हों और वास्तविक अर्थ में वे यात्रियों के पथप्रदर्शक सिद्ध हों। यह बात बहत सीमा तक ठोक जंचती है कि अब तीर्थयात्री अपेक्षाकृत कम संख्या में तीथों में एकत्र होंगे, क्योंकि धर्म-निरपेक्ष शिक्षा का अन्ततोगत्वा यही परिणाम होता है। यदि पुनीत पर्वतों एवं नदियों की तीर्थयात्रा सर्वथा समाप्त हो गयी तो सचमच, भारत की नैतिक एवं आध्यात्मिक महत्ता विपत्तिग्रस्त हो जायगी। ऐसी परिस्थिति में उच्च-शिक्षा प्राप्त भारतीयों से यही अनुरोध है कि कुछ पवित्र अथवा दिव्य स्थलों की यात्रा कभी-कभी वे अवश्य करें। अब हम स्वतंत्र हो चुके हैं, अपनी मातृभूमि के कोटि-कोटि नागरिकों के चरित्र को उठाना अथवा गिराना हम लोगों के उचित कर्तव्य पर ही निर्भर है। तीयों की यह भावना कि भौतिक स्वरूपों, खाद्य पदार्थों, वस्त्रों एवं आचरणों की विभिन्नता के रहते भी हम सभी एक हैं, यह कि इस विशाल जनभूमि का कोई भी जनपद या भाग ऐसा नहीं है जिसने धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों में वृद्धि न की हो, यह कि साहित्य, कला एवं तीर्थों से उत्पन्न नव-नव अभिचेतनाएं समृद्धि को प्राप्त होती रही हैं और भारत के किसी एक कोने के निवासियों के भाग्य अन्य भागों के निवासियों से जड़े हैं--इस बात की ओर प्रबल संकेत करते हैं कि हम सभी एक हैं। यदि हमें अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है तो यह अनिवार्य-सा है कि हम भारत के दूर-दूर स्थलों को यात्रा करें, अन्य भागों के लोगों से मिलें, उनके विलक्षण तौर-तरीकों से परिचित हों, उनकी आवश्यकताएं एवं दुर्बलताएँ जानें। हिमालय की पर्वत-श्रेणियों से भारत को प्रमख तीन लाभ हैं.--इसमें विश्व के सर्वोच्च शिखर पाये जाते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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