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तीर्घसूची भाबोह-(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० कल्प०, भरतेश-(वारा० के अन्तर्गत) लिंग (ती० कल्प०,
पृ० ५२)। भद्रकाली-हर-अग्नि० १०९।१७।
भकच्छ-(आधुनिक भडोच) सभा० ५१६१० (भरुभनकर्णेश्वर-(श्राद्ध के लिए एक उपयुक्त स्थान) कच्छ के निवासी गन्धार से पाण्डवों के पास घोड़े
वन० ८४३९, कर्म० २।२०१३५, स्कन्द० ७१। भेंट रूप में लाये थे), टालेमी एवं पेरिप्लस ने इसे अर्बुद खण्ड ८।१-२ (इसी नाम के एक हद पर बरिगज कहा है। इसे भृगुपुर एवं भृगुकच्छ भी कहा लिंग जो अर्बुद पर्वत पर है)।
जाता है (दूसरा नाम स्कन्द०, काशी० ६।२५ में भावट-वन० ८२।५०, पद्म० १।१२।१०, वराह० पाया जाता है)। सन् ६४८-९ ई० में वलभी-नरेश
५११२ (हिमालय के उत्तर की ओर) एवं ९८५६। धरसेन चतुर्य ने भरुकच्छ पड़ाव से ताम्रपत्र दिया भावन-(मथुरा के बारह वनों में छठा) वराह था। सुप्पारक जातक (सं० ४६३) में भरुकच्छ १५३।३७ एवं १६११७
बन्दरगाह रूप में उल्लिखित है। भता--(२) (गंगा की शाखाओं में एक) विष्णु० भर्तस्यान-वन० ८५१६०, पप० २३९।५६ (जहाँ २।२।३४, भागवत० ५।१७।५, वामन० ५११५२, देवता नित्य सन्निहित रहते हैं)। (२) वह नदी जिस पर हरि-हर अवस्थित हैं) भस्मगात्रक-लिंग० ११९२।१३७ । नृसिंह० ६५।१८।
भस्मकूटादि-(गया के अन्तर्गत) वायु० १०९।१५। भद्रावती-(गंगा की मौलिक चार धाराओं में एक, भागीरथी-मत्स्य. १२२४१ (यह उन सात धाराओं
अन्य तीन धाराएँ हैं सीता, अलकनन्दा एवं सुचक्षु) में से एक है जो बिन्दुसर से निकलीं और जो भगीब्रह्माण्ड० ३१५६।५२।
_ 'रथ के रथ का अनुसरण करती हुई समुद्र में पहुँची) भद्रेश्वर--(१) (नर्मदा के उत्तरी तट पर) मत्स्य० भाण्डहद-(मथरा के अन्तर्गत) वराह० १५७।१०।
२२।२५, कूर्म० २।४११४; (२) (वारा० के अन्त- भाण्डीर-(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १५३।४३, र्गत) लिंग. ११९२।१३६ (तीकल्प०, पु. ५२ (बारह वनों में ग्यारहवाँ) १५६।३। एवं ६८)।
भाण्डीरक बट-(वृन्दावन के पास) भागवत० १०/भरवाजाश्रम-रामायण (२१५४।९-१०, ६।१२७।१ १८।२२, १०।१९।१३। ।
एवं १७ तथा ५।१०२।५-६] । देखिए 'चित्रकट भानुतीर्थ-(गो० के अन्तर्गत) ब्रह्म० १३८१,१६८।१। गिरि'। आश्रम के वास्तविक स्थल के विवेचन भावतीर्थ-- (गो० के अन्तर्गत) ब्रह्म० १५३।१। के विषय में देखिए गंगानाथ झा रिसर्च इन्स्टीच्यूट भारगेश-(नर्म० के अन्तर्गत) मत्स्य० १९२।१, का जर्नल, जिल्द ३, पृष्ठ १८९-२०४ एवं ४३३- पद्म० १।१९।१। ४७४ (श्री आर० एम० शास्त्री)।
भारभूतेश्वर-(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० भरद्वाजतीर्थ--(देखिए 'अगस्त्यतीर्थ') आदि० २१६।- कल्प०, ५० ९३) ।।
भारभूति-(नर्म० के अन्तर्गत) मत्स्य० १९४।१८, भरतस्याश्रम-(१) (गया के अन्तर्गत) ब्रह्माण्ड० कूर्म० २।४२।२५, पा. १।२१।१८।
३।१३।१०५, मत्स्य० १३।४६ (यहाँ पर देवी को भारण्डवन-(मत्स्य देश में) रामायण २१७१।५। लक्ष्मी-अंगना कहा गया है), वायु० ७७-९८, भास्करक्षेत्र-(कोणार्क) मिता. (याज्ञ० ३।१७) १०८।३५, ११२।२४; (२) (कौशिकी के अन्तर्गत) ने उद्धृत किया है-'गंगायां भास्करक्षेत्रे'... कूर्म० २।३७१३८, पप० ११३८०४८।
आदि, तीर्थ चि० (पृष्ठ १६) एवं प्रायश्चित्ततत्त्व
४।
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