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________________ तीर्थसूची १४५९ प्रेतकुण्ड-- (गया के अन्तर्गत) वायु० १०८०६८- कथन है कि यह गंगा से उत्तम है, क्योंकि गंगा केवल ६९, अग्नि० ११६।१५। यह प्रेतशिला के चरण विष्णु के पद से निकली है और यह स्वयं आदिमें ब्रह्मयोनि के नाम से विख्यात है। गदाधर रूप है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ४, प्रेतकूट--- (गया के अन्तर्गत एक पहाड़ी) वायु० अध्याय १४। १०९।१५। फाल्गुन--भाग० ७।१४।३१, १०७९।१८ (श्रीधर प्रेतपर्वत--(गया के अन्तर्गत) वायु० ८३।२०। का कथन है कि यह अनन्तपुर है)। प्रेतशिला- (गया के अन्तर्गत) वायु० ११०।१५, फाल्गुनक--(मथुरा के दक्षिण) वराह० १५७।३२ । १०८।१५। यह ५८० फुट ऊँची है और गया से फाल्गुनेश्वर---(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० उत्तर-पश्चिम ५ मील दूर है। देखिए गया गजे- क०, पृ० १०५)। टियर (प्राचीन संस्करण, पृ० २३५)। फेना--(गोदावरी में मिलने वाली नदी) ब्रह्म० प्लमतीर्ष-(एक पवित्र तालाब, सम्भवतः कुरुक्षेत्र में, १२९।७। जहाँ पुरूरवा ने उर्वशी को प्राप्त किया) वायु० फेना-संगम-- (गोदावरी के साथ) ब्रह्म० १२९।१ ९१॥३२॥ एवं ७-८। प्लक्षप्रलवण-(या प्रश्र) (यहाँ से सरस्वती निकली है) शल्य० ५४।११, कूर्म० २।३७।२९, ब्रह्माण्ड० ३।१३।६९, वायु० ७७६७ (श्राद्ध के लिए अति बकुलवन--(या बहुलाओ) (मथुरा के अन्तर्गत १२ उत्तम)। वनों में पाँचवाँ वन) वराह० १५३।३६ । प्लक्षावतार-वन० ९०॥४, यहाँ पर याज्ञिकों बकुलासंगम-(साभ्रमती के अन्तर्गत) पद्म० ६। (यज्ञ करने वालों) ने सारस्वत-सत्र सम्पादित १३३।२७। किये; वन० १२९।१३-१४ (यमुनातीर्थ, जहाँ बगला--(एक देवी का स्थान) देखिए 'वैद्यनाथ' के सारस्वत यज्ञ करने वाले 'अवभृथ' नामक अन्तिम अन्तर्गत। स्नान के लिए आये), कूर्म० २।३७१८ (विष्णुतीर्थ), बञ्जला-(सम्भवतः वाजुला) (नदी) ब्रह्माण्ड मार्क० २११२९-३० (हिमवान् में)। २।१६।३१ (ऋक्ष से निर्गत), ब्रह्माण्ड० २।१६।३४ प्लक्षा-(नदी) वाम० (ती० क०, पृ० २३९)। (सह्य से, ब्रह्म०), ब्रह्माण्ड० २।१६।३७ (महेन्द्र से, यहाँ से यात्री पहले. कुण्डिम जाता है, तब शूरिक। ब्रह्म) ।। बदरिका-(१) वाम० २।४२-४३; (२) (महेन्द्र पर्वत के निकट) पद्म० ११३९।१३, वन०८५११३; फलकीवन-(कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत, संभवतः आधुनिक (३) (दक्षिणी गुजरात में कहीं) देखिए एपि० 'फरल', जो थानेसर के दक्षिण-पूर्व १७ मील पर है) इण्डि०, जिल्द २५, दन्तिदुर्ग के एलोरा दानपत्र में वन० ८३३८६ । (पृ० २५ एवं २९)। फल्गु--(जो गया के किनारे बहती हुई अन्त में पुनपुना बदरिकाश्रम--(१) (उ० प्र० के गढ़वाल संभाग में बद्री को एक शाखा में मिल जाती है) अग्नि० ११५।२७, नाथ) वराह०१४१ (ती० कल्प०, पृ० २१५-२१६); व्युत्पत्ति-'फल' एवं 'गो' (यस्मिन् फलति श्री! पराशरस्मृति (११५) का कथन है कि व्यास के पिता कामधेनुर्जलं मही। दृष्टिरम्यादिकं यस्मात् फल्गु- . पराशर इस आश्रम में रहते थे; मत्स्य० (२०१।तीर्थं न फल्गुवत् ॥)। वायु० (१११।१६) का २४) में आया है कि मित्र एवं वरुण ने यहाँ पर तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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