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तीर्थसूची
हाल (रिम) है, और 'शृ' धातु का अर्थ है तितर-बितर कर देना या तोड़-फोड़ देना; ब्रह्म० ( ११३-१० ) में इसका सुन्दर वर्णन है; वायु० ( १।१४- १२) ने स्पष्ट किया है कि नैमिषारण्य के मुनियों का महान् सत्र कुरुक्षेत्र में दृषद्वती के तट पर था । किन्तु वायु ० ( २०९ ) एवं ब्रह्माण्ड ० ( ११२१९ ) के अनुसार यह गोमती पर था । यह संभव है कि गोमती केवल विशेषण हो । यहीं पर वसिष्ठ एवं विश्वामित्र में कलह हुआ था । यहीं पर कल्माषपाद राजा को शक्ति ऋषि ने शाप दिया था और यहीं पर पराशर का जन्म हुआ था । विष्णु० ( ३ | १४|१८ ) में आया है कि गंगा, यमुना, नैमिश-गोमती तथा अन्य नदियों में स्नान करने एवं पितरों को सम्मान देने से पाप कट जाते हैं । (२) बृहत्संहिता ( ११ ६० ) का कथन है कि उत्तराभाद्रपदा में दुष्ट केतु नैमिष के अधिपति को नष्ट कर देता है ।
नैमिष-कुञ्ज --- ( सरस्वती पर ) वन० ८३ । १०९, पद्म० ११२६।१०२ ।
नैर्ऋतेश्वर - ( वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, पृ० ११७) ।
नौबन्धन - - ( कश्मीर के पश्चिम में पर्वत शिखर) नील
मत० ६२-६३ ।
नौबन्धनसर -- ( कश्मीर एवं पंजाब की सीमा पर ) नीलमत० ६४-६६, १६५ - १६६ । ( विष्णुपद एवं क्रमसार नाम भी है) ह० चि० ४|२७|
प
पञ्चकुण्ड
(१) ( द्वारका के अन्तर्गत ) वराह० ( ती०क०, पृ० २२६); (२) (लोहार्गल के अन्तर्गत ) वराह० १५१०४३ ( जहाँ हिमकूट से पाँच धाराएँ गिरती हैं) ।
पञ्चनद - ( पंजाब की पाँच नदियाँ ) वन० ८२१८३,
मौसल पर्व ७।४५, वायु० ७७ ५६, कूर्म ० २।४४।१-२, लिंग० १।४३।४७-४८ ( जप्येश्वर के पास), वाम० ३४।२६, पद्म० १।२४।३१ । महाभाष्य ( जिल्द २, ११०
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पृ० २३९ पाणिनि ४|११८) ने व्युत्पत्ति की है'पंचनदे भवः' और इसे 'पंचनदम्' से 'पांचनदः ' माना है। वैदिक काल में पाँच नदियाँ ये थीं-- शुतुद्री, विपाशा, परुष्णी, असिक्नी एवं वितस्ता और आजकल इन्हें क्रम से सतलज, व्यास, रावी, चिनाब एवं झेलम कहा जाता है। इन पाँचों के सम्मिलन को आज पंजनद कहा जाता है, और सम्मिलित धारा मिठानकोट से कुछ मील ऊपर सिन्धु में मिल जाती है। बृहत्संहिता (११।६० ) का कथन है कि यह पश्चिम में एक देश है । वन० (२२२।२२ ) ने सिन्धु एवं पंचनद को पृथक्-पृथक् कहा है । और देखिए सभापर्व ( ३२॥ ११) । पञ्चनदतीर्थ -- ( गंगा के अन्तर्गत ) ब्रह्माण्ड० ४।१३॥ ५७, नारदीय० २।५१।१६-३६। देखिए गत अध्याय
१३ ।
पंचनदी -- ( कोल्हापुर के पास ) पद्म० ६।१७६।४३
(इसके पास महालक्ष्मी की प्रतिमा है) । पञ्चनदीश्वर - ( वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, पृ० ९६) ।
पञ्चपिण्ड -- ( द्वारका के अन्तर्गत ) वराह ० १४९ | ३६-४० (जहाँ पर अच्छे कर्म करने वाले चाँदी एवं सोने के कमलों का दर्शन करते हैं, दुष्कर्मी नहीं ) । तीर्थ कल्पतरु ( पृ० ३२६) में 'पंचकुण्ड' पाठ आया है। पञ्चप्रयाग दे ( पृ० १४६) ने (१) देवप्रयाग ( भागीरथी एवं अलकनन्दा का संगम ), (२) कर्णप्रयाग 'अलकनन्दा एवं पिन्दरा का संगम), (३) रुद्रप्रयाग ( अलकनन्दा एवं मन्दाकिनी), गढ़वाल जिले के श्रीनगर से १८ मील, (४) नन्दप्रयाग ( अलकनन्दा एवं नन्दा ), (५) विष्णुप्रयाग, जोशीमठ के पास ( अलकनन्दा एवं विष्णु गंगा) का उल्लेख किया है। पञ्चतप-- (एक शिवतीर्थ जहाँ का पिण्डदान अनन्त होता है) कूर्म० २०४४।५-६ ।
पञ्चतीर्थ - - ( काञ्ची में ) ब्रह्माण्ड० ४।४०।५९-६१ । पञ्चतीर्थकुण्ड -- (मधुरा के अन्तर्गत ) वराह० १६४ ।
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