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________________ तीर्थसूची १४४९ नारदेश्वर--(१) (नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १९१। निम्बार्कतीर्थ-(साभ्रमती पर) पद्म० ६।१५१११ एवं ५; (२) (वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, १४ (पिप्पलादतीर्थ के पास)। पृ० ५३)। निम्नभेद-- (गोदावरी के उत्तरी तट पर) ब्रह्म नारायणसर--(सिन्ध की पूर्वी शाखा के मुख पर, जिसे १५१।१। कोरी कहा जाता है) भाग० ६।५।३ एवं २५, शिव- निरञ्जन-(आदित्यतीर्थ, प्रयाग में यमुना के उत्तर पुराण २२।१३।१३। यह सिन्धु-समुद्र संगम है। यह तट पर) मत्स्य० १०८।२९। ती० क० पृ० १४९ में कच्छ के मुख्य नगर भुज से ८१ मील दूर एवं कोटी- 'निरूजक' आया है। श्वर तथा समुद्र के बीच में है। प्राचीन काल में निरञ्जना--वह नदी जिसमें मोहना मिलती है और यहाँ एक झील एवं आदि-नारायण का मन्दिर था। जिसके संगम से फल्गु नामक नदी गया में आती है। देखिए बम्बई गजे०, जिल्द ५, पृ०२४५-२४८। यह बौद्ध ग्रन्थों में विख्यात है। एरियन ने मोहना को नारायणाश्रम-- (बदरी के पास) वन० १४५।२६-३४, 'मगोन' एवं निरञ्जना को 'एहेन्यसिस' कहा है १५६।१४। भाग० ७।१४।३२, ९।३।३६, १०८७। (टॉलेमी, पृ० ९७)। निरविन्दपर्वत--अनु० २५।४२ । नारायणस्थान-वन० ८४११२, पद्म० ११३८।३९। निर्जरेश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, नारायणतीर्ष-(१) (वाराणसी के अन्तर्गत) पद्म० १० १०३)। ११३७१५; (२) ब्रह्म १७६।१ एवं ३३ (गोदाव के निर्विन्ध्या--(विन्ध्य से निकलकर चंबल में मिलनेवाली अन्तर्गत, इसे विप्रतीर्थ भी कहा जाता है)। नदी) ब्रह्म २७१३३, मत्स्य० ११४१२७, मार्क० नारीतीर्थानि--(द्रविड़ देश में समुद्र पर) 'वन० ११८।- ११३।३३, ब्रह्माण्ड० २।१६।३२, मेघदूत १।१८। ... ४, आदि० २१७।१७--'दक्षिणे सागरानूपे पञ्च भाग० (४।१।१७-१९ एवं विष्णु० २।३।११) के अनुतीर्थानि सन्ति वै।' देखिए 'पञ्चाप्सरस्'। सार यह ऋक्ष से निकलती है और मुनि अत्रि का इस मारसिंह- (गया के अन्तर्गत) नारदीय० २।४६।- पर आश्रम है। मार्क० (अध्याय ११३) में विदूरथ (जिसकी राजधानी निविन्ध्या के पास थी) एवं मारसिंहती--(१) (गोदावरी के उत्तरी तट पर) भलन्दन के पुत्र वत्सप्री की गाथा आयी है। ब्रह्म० १४९।१; (२) (दर्शन मात्र से पाप कटता निर्वीरा-(नदी) वन० ८४।१३८-१३९ (इसके तट है) मत्स्य० २२१४३। पर वसिष्ठाश्रम था)। नासिक्य--(आधुनिक नासिक) देखिए इस ग्रन्थ का निवासलिंग--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० भाग ४, अध्याय १५ एवं वायु० ४६।१३०। क०, १० ८९)। निःक्षीरा--(गया में क्रौंचपद पर एक कमलकुण्ड है) निशाकर-लिंग--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती. वायु० १०८1८४, नारदीय० २१४४।६४, ७।३५, क०, पृ० ६५)। अग्नि० ११६१८ (निश्चीरा)। निश्चीरा-यह निर्वीरा का एक भिन्न पाठ-सा है। निःक्षीरा-संगम-नारदीय० २।४७।३५ । __मत्स्य० ११४।२२ ('निश्चला' पाठ आया है)। निगमोद्बोधक-(प्रयाग से एक गब्यूति पश्चिम) पद्म निष्फलेश---कूर्म ० २।४१।८। ६।१९६।७३-७४; २००।६ (इन्द्रप्रस्थ में)। दे निषष-(पर्वत) वन० १८८१११२; अलबरूनी (जिल्द (पृ० १४०) का कथन है कि यह यमुना पर २, पृ० १४२) का कथन है कि निषध पर्वत के पास पुरानी दिल्ली में निगमबांध घाट है। विष्णुपद एक सर है, जहाँ से सरस्वती आती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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