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तीर्थसूची
१४३९ (पृ० २५४) द्वारा उद्धृत-'तुंगा च दक्षिणे गंगा स्वाष्ट्रेश्वर-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती. कावेरी च विशेषतः।'
क०, पृ० ९६)। तुङ्गभद्रा--(तुंगा एवं भद्रा दो बड़ी नदियाँ मैसूर देश त्रस्तावतार-(एक आयतन) देवल० (ती० क०,
से निकल कर कुंडली के पास मिलने पर तुंगभद्रा हो पृ० २५०)। जातो हैं। यह नदो रायचूर जिले में अलमपुर के पास त्रिककुद्--(हिमवान् का एक भाग) अथर्ववेद ४।९।८ कृष्णा में मिल जाती है) मत्स्य० २२।४५, नृसिंह एवं ९ (एक प्रकार के अंजन के लिए प्रसिद्ध), मैत्रा६६।६ (ती० क०, पृ० २५४), भाग० ५।१९।१८, यणी-संहिता ३।६।३, शतपथ ब्राह्मण ३।१३।१२ मत्स्य० ११४।२९, ब्रह्म० २७३३५, वायु०४५।१०४ (इन सब में त्रैककुद पत्रककुभ आंजन का उल्लेख (अन्तिम तीन का कथन है कि यह सह्य से निकलती है), पाणिनि (५।४।१४७, त्रिककृत् पर्वते) । देखिए है)। एपि० इण्डि० (जिल्द १२, १० २९४) एवं ब्रह्माण्ड० ३।१३।५८ (त्रिककुद् गिरि, श्राद्ध के लिए विक्रमांकदेवचरित (४।४४-६८) से प्रकट होता है अति विख्यात), वायु० ७७।५७-६३ ।
त्रिकूट--(पर्वत) वाम० ८५।४ (सुमेरु का पुत्र), पीड़ित होने पर तुंगभद्रा में जलप्रवेश कर लिया था नसिंह० ६५।२१, पद्म० ६।१२९।१६। भाग० (८।२। (सन् १०६८ ई० में)।
१) में यह दन्तकथात्मक प्रतीत होता है। रघुवंश तुङ्गकूट--(कोकामुख के अन्तर्गत)वराह०१४०।२९-३० । (४१५८-५९) से प्रकट होता है कि त्रिकूट अपरान्त में तुङ्गारण्य-वन० ८५।४६-५४, पद्म० ११३९।४३ (जहाँ था। कालिदास का त्रिकुट नासिक में तिरह्न या त्रिपर सारस्वत ने मुनियों को उपदेश दिया)।
रश्मि पहाड़ी प्रतीत होता है। देखिए बम्बई का गजे०, तुङ्गवेणा--(उन नदियों में एक, जो अग्नि की उद्गम- जिल्द १६, पृ० ६३३ एवं एपि० इण्डि०, जिल्द २५, स्थल हैं) वन० २२२।२५ ।
पृ० २२५ एवं २३२। माधववर्मा (लगभग ५१०तुङ्गेश्वर--(वाराणसी में) लिंग० ११९२१७ ।
५६० ई०) के खानपुर-दानपत्र उसे त्रिकूट एवं तुराग--(नर्मदा के अन्तर्गत एक तीर्थ) मत्स्य० मलय का स्वामी कहते हैं (एपिः इण्डि०, जिल्द २७, १९१।१९।
पृ० ३१२, ३१५)। तृणबिन्दु-वन-ना० (ती० क०, पृ० २५२)। त्रिकोटि-(कश्मीर में एक नदी) नीलमत० २८८, तृणबिन्दु-सर--(काम्यक वन में) वायु० २५८।१३। ३८६-३८७ । कश्यप की प्रार्थना पर अदिति त्रिकोटि तेजस--(कुरुक्षेत्र के पश्चिम, जहाँ स्कन्द देवों के सेनापति हो गयी। यह वितस्ता में मिलती है। बनाये गये थे) पम०१।२७।५३।
त्रिगंग--वन०८४।२९, अनु०२५।१६,५००२८।२९। तोया--(विन्ध्य से निकली हुई नदी) मत्स्य० ११४। त्रिजलेश्वर-लिंग---(जहाँ गण्डकी एवं देविव २८, वायु० ४५।१०३।
हैं) वराह. १४४१८३। तोषलक--(यहाँ विष्ण का गुह्य नाम 'गरुड़ध्वज' है) त्रिगर्तेश्वर-(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १७६।१६ ।
नृसि । ती० क०, पृ० २५२)। क्या यह टॉलेमी त्रितकूप--(एक तीर्थ जहाँ बलराम दर्शनार्थ गये थे) का 'तोसलेई', अशोक के धौली लेख (सी० आई० भाग० १०१७८।१९ (पृथूदक एवं बिन्दुसर के पश्चात् ।। आई०, पृ० ९२ एवं ९७) एवं नागार्जुनीकोण्ड लेख ऋ० (१।१०५।१७) ने त्रित का उल्लेख किया है, (एपि० इण्डि०, जिल्द २०,पृ० २३) का 'तोसलि' है? जो कुप में फेंक दिया गया था और जिसे बृहस्पति मौर्यों के काल में उत्तरी कलिंग को राजधानी तोसलि ने बचाया था। देखिए निरुक्त (४१६)। (पुरी जिले में आधुनिक धौली) प्रमुख नगरी थी। त्रिदशज्योति-(नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १९४।११।
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