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________________ १४३६ धर्मशास्त्र का इतिहास है) मत्स्य. १९४१३४-३५, पम० ११२११३४-३५ स्टीन-स्मृति (पृ० १९७-१९८)। अब यहाँ (जमदग्नितीर्थ); (२) मत्स्य० २२।५७-५८ (गोदा- अन्दरकोट नामक ग्राम है। वरी पर, श्राद्ध के लिए अति उपयोगी)। जयातीर्थ-मत्स्यः २२।४९। जम्बीरचम्पक--(मथुरा के अन्तर्गत) वराह० (ती० जयवन--(कश्मीर में आधुनिक जेवन) राज० क०, पृ० १९०)। ११२२०, विक्रमांकदेवचरित १८५७० (प्रवरपुर अम्बुकेश्वर-(वारा० के अन्तर्गत) कूर्म० ११३५।४, से डेढ़ गव्यूति)। आइने अकबरी (जिल्द २, पृ० पद्म० ११३७६४, लिंग० ११९२।१०७, नारदीय० ३५८) में जेवन का उल्लेख है। यह एक पवित्र २।५०।६७ (जहाँ जम्बुक राक्षस शिव द्वारा मारा धारा एवं कुण्ड है। जेवन ग्राम के पास एक स्वच्छ गया था)। कुण्ड में आज भी तक्षक नाग की पूजा होती है। जम्बुला---(ऋक्षपाद से निकली हुई नदी) वायु० देखिए ऐं० जि० (पृ० १०१-१०२)। ४५।१०। जयनी-पद्म० १।२६।१६ (जहाँ सोमतीर्य है)। जम्बमार्ग--(१) (एक आयतन) देवल (ती० क०, अल्पीश--ती० प्र० (६०२-६०३) ने कालिकापुराण २५०), विष्णु० २।१३।३३ (गंगा पर); देवल का उद्धरण दिया है। (ती. क०, पृ० २५०) ने जम्बूमार्ग एवं कालंजर जहद--नारदीय० २१४०।९० । को आयतनों के रूप में पृथक्-पृथक् वर्णित किया जाल-बाई ० सूत्र (३।१२४) के अनुसार शाक्त क्षेत्र। है; (२) (कुरुक्षेत्र के पास) वन० ८२।४१-४२, जालबिन्दु--(कोकामुख के अन्तर्गत) वराह० १४०।१६। ८९।१३ (असित पर्वत पर), अनु० २५।५१, जालन्धर--(१) (पहाड़ी) मत्स्य० १३।४६ (इस १६६।२४, मत्स्य० २२।२१, ब्रह्माण्ड० ३॥१३- पर देवी विश्वमुखी कहो जाती है), २२।६४ (पितृ३८, (३) (पुष्कर के पास) पद्म० १।१२।११-२, तीर्थ); कालिका० (१८१५१) के मत से देवी जालअग्नि० १०९।९, वायु० ७७।२८।। न्धर पहाड़ पर चण्डी कही जाती हैं जहां पर उनके गम्बूनदी-(मेरु-मन्दर शिखर के ढाल पर स्थित स्तन गिर पड़े थे जब कि शिव उनके शव को ले जा चन्द्रप्रभा झील से निकली हुई नदी) ब्रह्माण्ड० रहे थे; (२) (पंजाब में सतलज पर एक नगर) २।१८।६८-६९, भाग० ५।१६।१९। वायु० १०४।८० (वेदपुरुष की छाती पर जालन्धर जपेश्वर--(या जाप्येश्वर) कूर्म० २।४३।१७-४२ एक पीठ है), संभवतः जालन्धर ललिता के पीठों में (समुद्र के पास नन्दी ने रुद्र के तीन करोड़ नामों का एक है; पz० ६।४।१९-२०, ब्रह्माण्ड ० ४।९४।९५ जप किया)। अग्नि० ११२।४ (वारा० के अन्तर्गत)। (जालन्ध्र), देखिए ऐं० जि० (पृ० १३६-१३९)। जरासंघेश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती. जालेश्वर--(१) (एक शिवतीर्थ, आठ स्थानों में क०, पृ० ११५)। एक) मत्स्य ० १८१।२८ एवं ३०, कूर्म० २१४०।जयन्त-मत्स्य० २२०७३, वाम० ५११५१। ३५; (२) (नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १८६।जयन्तिका--ब्रह्माण्ड० ४।४४।९७ (५० ललितापीठों १५ एवं ३८, (जालेश्वर नामक एक ह्रद) कूर्म० में से एक)। २॥४०॥२२, पद्म० १११४॥३, मत्स्य ० (अ० १८७, जयपुर--(कश्मीर में, जयापीड की राजधानी, जल इसकी उत्पत्ति); (३) (शालग्राम के पास जले से घिरी हुई। श्री कृष्ण की द्वारवती की अनुकृति श्वर) वराह० १४४।१३९-१४० । में यह यहाँ रवती कही गयी है) राज० जैगीषव्य-गुहा-(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (१।४।५०१-५११, काश्मीर रिपोर्ट, पृ० १३-१६, ९२।५३)। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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