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________________ १०३६ धर्मशास्त्र का इतिहास है कि ब्रह्मचर्य, सत्यवचन, प्रति दिन तीन बार (प्रात:, मध्याह्न एवं सायं) स्नान, गीले वस्त्र का धारण (जब तक शरीर पर ही वस्त्र सूख न जाय) एवं उपवास तप में सम्मिलित हैं। बौधा० ध० सू० (३।१०।१३) ने इसमें अहिंसा, अस्तंन्य (किसी को उसकी सम्पत्ति से वंचित न करना) एवं गुरुशभूषा भी जोड़ दिये हैं। गौतम (१९।१७) ने पाप के स्वरूप के अनुसार तप की निम्न अवधियां दी हैं—एक वर्ष, छः मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास, २४ दिन, १२ दिन, ६ दिन, ३ दिन, एक दिन एवं एक रात। मनु (११।२३९-३४१) ने घोषणा की है कि जो महापातकों एवं अन्य दुष्कर्मों के अपराधी होते हैं वे सम्यक तप से पाप-मुक्त हो जाते हैं तथा विचार, शब्द या शरीर से जो पाप हुए रहते हैं वे तप से जल जाते हैं। इस सिद्धान्त को जैनों ने भी अपनाया है (उत्तराध्ययन, ३९।२७)-"तपों द्वारा वह कर्म को काट डालता है।" होम-तैत्तिरीयारण्यक (२१७-८) ने कूष्माण्डहोम एवं दीक्षा का वर्णन किया है और व्यवस्था दी है (२१८) कि उस व्यक्ति को जो अपने को अपवित्र समझता है, कूष्माण्ड मन्त्रों से होम करना चाहिए, यथा--'यद्देवा देवहेडनम्' (वाज० सं० २०११४-१६ =ते. आ० २।३.१ एवं ३-६)। कूष्माण्डहोम के लिए देखिए महार्णवकर्मविपाक । इस होम के कर्ता को दीक्षा के नियमों का पालन करना होता था, यथा-मांस का सेवन न करना, संभोग न करना, असत्य न बोलना, शय्या पर न सोना। उसे दूध (यदि ब्राह्मण हो तो) पीना पड़ता था, (क्षत्रिय होने पर) जो की लपसी खानी पड़ती थी और (वैश्य होने पर) आमिक्षा का सेवन करना पड़ता था। बौधा० ध० सू० (३७१) के अनुसार अपवित्र व्यक्ति को कूष्माण्ड-होम में भुनी हुई आहुतियां छोड़नी चाहिए, निषिद्ध संभोग करने से व्यक्ति चोर एवं ब्रह्मघातक के समान हो जाता है और वह इस होम द्वारा ब्रह्महत्या से कम पापों से मुक्ति पा जाता है। याज्ञ० (३१३०९) के अनुसार यदि कोई द्विज अपने को पापमुक्त करना चाहे तो उसे गायत्री मन्त्र द्वारा तिल से होम करना चाहिए। मिता. ने यम के मत से तिल की एक लाख आहुतियों का उल्लेख किया है। मनु (११॥३४) एवं वसिष्ठ (२६।१६) के मत से ब्राह्मण व्यक्ति वैदिक मन्त्रों के जप एवं होम से सभी विपत्तियों से छुटकारा पा जाता है। शत० ब्रा० (२।५।२।२०) का कथन है कि जब पत्नी अपने अन्य प्रेमियों के सम्बन्ध को स्वीकार करती है तो उसे निम्न मन्त्र के साथ दक्षिणाग्नि में होम करना पड़ता है-"यद् ग्रामे यदरण्ये यत्सभायां यदिन्द्रिये। यदेनश्चकृमा वयमिदं तदवयजामहे स्वाहा" (वाज० सं० ११८१३), अर्थात् "हमने जो भी पाप ग्राम में, वन में, समाज में या इन्द्रियों से किया हो, हम उसे इस होम द्वारा दूर कर रहे हैं, स्वाहा।” मनु (८।१०५) एवं याज्ञ० (२१८३) ने व्यवस्था दी है कि जब कोई साक्षी किसी को मृत्यु-दण्ड से बचाने के लिए झूठी गवाही देता है तो उसे इस कोटसाक्ष्य के प्रायश्चित्त के लिए सरस्वती को भात की आहुतियाँ देनी चाहिए। कुछ अन्य होम भी व्यवस्थित हैं, यथा गणहोम जिसमें तैत्तिरीय शाखा के 'अग्ने नय सुपथा' जैसे मन्त्रों का उच्चारण करना पड़ता है (महार्णव०)। ऐसा लगता है कि प्राचीन होम-भावना का स्वरूप शान्तिकारक या शमनकारक मात्र था। होम देवता द्वारा अपेक्षित नहीं था, अर्थात् देवता द्वारा इसकी मांग नहीं की गयी थी। होम सम्भवतः एक प्रकार की भेट थी जिससे देवता प्रसन्न होता था। होम से प्रसन्न होकर देवता या ईश्वर व्यक्ति को (उसके अपराधों के लिए) क्षमा करता था। होम से व्यक्ति अपने दुष्कृत्य द्वारा खोयी हुई भगवत्कृपा को पुनः प्राप्त कर लेता था। अतः होम का परिणाम प्रायश्चित्त-सम्बन्धी एवं शुद्धीकरण सम्बन्धी था, अर्थात होम करने से पापी शुद्ध हो जाता था और अपने पाप का मार्जन भी कर लेता था। होम पशु की बलि (उस व्यक्ति के प्रतिनिधि के रूप में जिसने पाप-कर्म एवं नियमोल्लंघन से अपना जीवन खो दिया हो) या आहुतियों या ईश्वर को दी गयी किसी वस्तु एवं पुनः उसके दान द्वारा किया जा सकता था। __ जप (प्रार्थना या स्तुति के रूप में वैदिक मन्त्रों का पाठ)-जप के तीन प्रकार हैं; वाचिक (स्पष्ट उच्चरित), उपांश (अस्पष्ट उच्चरित) एवं मानस (मन से उच्चरित)। इनमें से प्रत्येक आगे वाला दस गुना अच्छा माना जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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