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अध्याय २
पाप-फलों को कम करने के साधन
आत्मापराध - स्वीकृति -- आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १/९/२४ १५ १।१०।२८।१९, १।१०।२९।१ ) में ऐसी व्यवस्था दी गयी है कि व्यक्ति को अभिशस्तता के कारण प्रायश्चित्त करते समय, या अन्यायपूर्वक पत्नी - परित्याग करने पर, या विद्वान् (वेदज्ञ) ब्राह्मण की हत्या करने पर अपनी जीविका के लिए भिक्षा माँगते समय अपने दुष्कृत्यों की घोषणा करनी चाहिए। वैदिक विद्यार्थी (ब्रह्मचारी) को संभोगापराधी होने पर सात घरों में भिक्षा माँगते समय अपने दोष की घोषणा करनी पड़ती थी ( गौ० २३।१८ एवं मनु ११।१२२) ।
अनुताप ( पश्चात्ताप ) मन (११।२२९ - २३० = विष्णुधर्मोत्तर २०७३।२३१ - २३३ = ब्रह्मपुराण २१८ | ५ ) का कथन है- " व्यक्ति का मन जितना ही अपने दुष्कर्म को घृणित समझता है उतना ही उसका शरीर ( उसके द्वारा किये गये) पाप से मुक्त होता जाता है। यदि व्यक्ति पाप कृत्य के उपरान्त उसके लिए अनुताप ( पश्चात्ताप ) करता है तो वह उस पाप से मुक्त हो जाता है। उस पाप का त्याग करने के संकल्प एवं यह सोचने से कि 'मैं यह पुनः नहीं करूँगा' व्यक्ति पवित्र हो उठता ।" देखिए अपरार्क ( पृ० १२३१) | विष्णुपुराण (२।६।४०) ने अनुताप एवं कृष्ण-भक्ति करने पर बल दिया है। प्रायश्चित्तविवेक ( पृ० ३०) ने अंगिरा की उक्ति दी है- "पापों को करने के उपरान्त यदि व्यक्ति अनुताप में डूबा हुआ हो और रात-दिन पश्चात्ताप कर रहा हो तो वह प्राणायाम से पवित्र हो जाता है ।" प्रायश्चित्तप्रकाश जैसे निबन्धों का मत है कि केवल पश्चात्ताप पापों को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं है, प्रत्युत उससे पापी प्रायश्चित्त करने के योग्य हो जाता है, यह उसी प्रकार है जैसा कि वैदिक यज्ञार्थी नख आदि कटा लेने के उपरान्त यज्ञ में दीक्षित होने के योग्य हो जाता है। अपरार्क ( पृ० १२३१) द्वारा उल्लिखित यम का वचन है। कि अनुताप एवं पापकर्म की पुनरावृत्ति न करना प्रायश्चित्तों के अंग ( सहायक तत्व ) मात्र हैं और वे स्वतः (स्वतन्त्र रूप से) प्रायश्चित्तों का स्थान नहीं प्राप्त कर सकते ।
प्राणायाम ( श्वासावरोष ) - इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २ अध्याय ७ । मनु (११।२४८ = बौघा० घ० सू० ४।१।३१ = वसिष्ठ ० २६/४, अत्रि २।५, शंखस्मृति १२।१८-१९ ) ने कहा है--"यदि प्रति दिन याहृतियों एवं प्रणव (ओंकार ) के साथ १६ प्राणायाम किये जायें तो एक मास के उपरान्त भ्रूण हत्या (विद्वान् ब्राह्मण की हत्या) छूट जाती है।" यही बात विष्णुधर्मसूत्र ( ५५ | २ ) ने भी कही है । वसिष्ठ ( २६ । १-३ ) ने व्यवस्था दी है कि तीन प्राणायामों के सम्यक् सम्पादन से रात या दिन में किये गये सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । याज्ञ० ( ३/३०५ )
कथन है कि उन सभी पापों के लिए तथा उन उपपातकों एवं पापों के लिए जिनके लिए कोई विशिष्ट प्रायश्चित्त न निर्धारित हो, एक सौ प्राणायाम नष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। शूद्र का भोजन कर लेने से लेकर ब्रह्महत्या तक के विभिन्न पापों के मोचन के लिए बौधा० ध० सू० (४।१।५-११) ने एक दिन से लेकर वर्ष भर के लिए विभिन्न संख्याओं (३,७,१२) वाले प्राणायामों की व्यवस्था दी है। देखिए मिता० ( याज्ञ० ३।३०५ ) एवं अग्नि० ( १७३ । २१ ) ।
तप - ऋग्वेद (१०।१५४।२) में भी तप स्वर्ग ले जानेवाला एवं अनाक्रमणीय माना गया है। छा० उप० (५।१०।१-२) एवं मुण्डकोपनिषद् (१।२।१०-११ ) ने तप को यक्ष से ऊपर रखा है। गौतम ( १९/१५ ) का कथन
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