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________________ १०३४ धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ वह कर्म करता है वैसा ही फल पाता है" (बृ. उप० ४।४।५); "कुछ मनुष्य शरीर के अस्तित्व के लिए योनि (गर्भ) में प्रविष्ट होते हैं, और अन्य लोग अपने कर्मों एवं ज्ञान के अनुसार जड पदार्य (स्थाणु, पेड़ आदि) में प्रविष्ट होते हैं।"२२ “मनुष्य द्वारा किये हुए कर्म तब तक नष्ट नहीं होते जब तक कि उनका (अर्थात् उनके फलों का) उपभोग करोड़ों वर्षों तक नहीं हो जाता; कर्म (अर्थात् उनके फल), चाहे वे अच्छे हों या बुरे (शुभाशुभ), अवश्य ही भोगे जाने चाहिए। और देखिए आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।१।२-७) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२०।४७)-"जिस प्रकार सहस्रों गायों के बीच में बछड़ा अपनी माँ को खोज लेता है, उसी प्रकार पूर्व जीवन में किये गये कर्म अपने कर्ता के पास बिना किसी त्रुटि के पहुँच जाते हैं।" किन्तु आगे चलकर स्मृतियों एवं अन्य ग्रन्थों में यह सिद्धान्त कई प्रकार से संशोधित हो गया। गौतम (१९।११ वसिष्ठ० २२६८) का कथन है-"जप (वेद मन्त्रों का बारम्बार पाठ), तप, होम, उपवास एवं दान उस (दुष्कृत्य) के प्रायश्चित्त के साधन हैं।" वसिष्ठ० (२०१४७ एवं २५।३) की व्यवस्था है-"पापी प्राणी शरीर को पीड़ा देने, जप, तप एवं दान द्वारा पाप से छुटकारा पा जाता है” और “जो लगातार प्राणायामों में संलग्न रहते हैं, पवित्र वचनों का पाठ करते रहते हैं, दान, होम एवं जप करते रहते हैं, वे निस्संदेह पापों से मुक्त हो जाते हैं।" मनु (३१२२७) का कथन है-"आत्मापराध स्वीकार, पश्चात्ताप, तप, वैदिक मन्त्रों (गायत्री आदि) के जप से पापी अपराध (पाप) से मुक्त हो जाता है और कठिनाई पड़ जाने पर (अर्थात यदि वह जप, तप आदि न कर सके तो) दान से मुक्त हो जाता है।" और देखिए इसी के समान व्यवस्थाओं के लिए पराशर (१०४०), शातातप (१।४), संवर्त (२०३), हारीत (प्राय० तत्त्व, पृ० ४६७), यम (प्राय० वि०, पृ० ३० एवं ३१) एवं भविष्यपुराण (प्राय० वि०, पृ० ३१)। प्रायश्चित्तों के विषय में लिखने के पूर्व हम पाप के फलों को कम करने के अन्य साधनों पर संक्षेप में लिखेंगे। इनमें प्रथम है अपराध या पाप का स्वीकरण या आत्मापराध-स्वीकार। तैत्तिरीय ब्राह्मण (११६।५।२) में वरुणप्रयास के सिलसिले में पत्नी द्वारा अपने प्रेमियों के विषय में स्वीकारोक्ति का स्पष्ट उल्लेख है-“वह अपनी पत्नी से स्वीकार कराता है, अतः वह उसे पवित्र (शुद्ध) बना देता है और तब उसे प्रायश्चित्त की ओर ले जाता है।" शतपथब्राह्मण (२।५।२।२०) इसे यों रखता है-"क्योंकि स्वीकार कर लेने पर पाप कम हो जाता है; तब वह सत्य हो जाता है।" यह आत्मापराध-स्वीकार देवता (अग्नि) एवं मनुष्यों (पुरोहितों) के समक्ष इसलिए होता था कि व्यक्ति को देवी क्षमा या कृपा प्राप्त हो जाय। अन्य दुष्कृत्यों में आत्मापराध-स्वीकार का कार्य पापमोचन के लिए व्यवस्थित विधि का एक भाग मात्र था। २२. यथाकारी यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुष्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यस्कतुर्भवति तस्कर्म कुरुते यत्कर्म तदभिसंपद्यते ॥ बह० उ० (४।४।५); अथ खल ऋतुमयः पुरुषो यथाऋतुरस्मिलं लोके पुरुषो भवति ततः प्रेत्य भवति ॥ छा० (३॥१४॥१); योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाभुतम् ॥ कठ० उप० (५७)। २३. नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ यह स्मृति प्रायश्चित्तविवेक (पृ० १७) में गोविन्दानन्द द्वारा एवं तैत्तिरीयारण्यक (८२) के भाष्य में सायण द्वारा उद्धृत है। और देखिए परा०.मा० (२, भाग १, पृ० ११)। २४. तस्य निष्क्रयणानि जपस्तपो होम उपवासो दानम् । गौ० (१९।११= वसिष्ठ २२।८ बौधा० प. सू० ३।१०।९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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