________________
पाप निवारण के उपाय (प)
१०३७ है (लघु-हारीत ४, पृ० १८६)। शबर (जैमिनि १२।४।१) ने जप एवं स्तुति में अन्तर बतलाया है, जिनमें प्रथम (जप) में मन्त्र या मन्त्रों का कथन मात्र होता है। शांखायनब्राह्मण (१४११) में उपांशु नामक जप की प्रशंसा की गयी है। आश्वलायनश्रौतसूत्र (१३१०२०) के मत से जप, अनुमन्त्रण, आप्यायन एवं उपस्थान व्यक्त उपांशु हैं। आपस्तम्बश्रौतसूत्र (२४११३८-१०) ने कहा है कि ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र यज्ञों में उच्च स्वर से बोले जाते हैं तथा यजुर्वेद के मन्त्र उपांशु बोले जाते हैं। तैत्तिरीय प्रातिशास्य (२३३६) का कथन है कि उपांशु जप वागिन्द्रिय के प्रयोग सहित किंतु बिना उच्चारण-ध्वनि किये किया जाता है (अर्थात् बहुत धीमे से बोला जाता है) और उसमें आन्तरिक प्रयत्न नहीं रहता (उसमें उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरों का प्रयोग नहीं होता-करमवदशब्दममनःप्रयोगमुपांशु) । गौतम (१९।१२ = बौधा० ३० सू० ३.१०.१० = वसिष्ठ २२।९) ने निम्न वैदिक रचनाओं को शुचिकर (पवित्र करनेवाली) कहा है-उपनिषद्, वेदान्त, संहिताएँ (सभी वेदों की, किन्तु परपाठ या क्रमपाठ को छोड़कर), यजुर्वेद का 'मधु'सूक्त, अघमर्षण सूक्त (ऋ० १०.१९०।१-३), अथर्वशिरस (अनुवाक वाला), रुद्रपाठ, पुरुषसूक्त (ऋ० १०।९०), राजत एवं रौहिण नामक दो साम, बृहत्साम एवं रथन्तर, पुरुषगति साम, महानाम्नी ऋचा, महावैराज साम, ज्येष्ठ सामों में कोई एक, बहिष्पवमान साम, कूष्माण्ड, पावमानी (ऋ०९) एवं सावित्री (ऋ० ३१६२।१०)। जप-सम्बन्धी मौलिक भावना अत्यन्त आध्यात्मिकतावर्षक थी। उपनिषदों एवं अन्य वचनों के गम्भीर शान ने आत्मा को पवित्र बनाया, परम तत्त्व को समझने में समर्थ किया और लोगों को यह विदित कराया कि मानव उसी एक दैवी शक्ति की चिनगारी (स्फुलिंग या अभिव्यंजना) है। जप उच्च मनोभूमि पर परमात्मा का ध्यान है और उसकी एकता का प्रयत्न है। पवित्र वचनों के पाठ का अभ्यास परमात्मा की उपस्थिति एवं तत्सम्बन्धी विचार में आत्मा की व्यवस्था या नियमन है। जप के लिए तीन बातें आवश्यक हैं; हृदय (मन) की शुचिता, असंगता (निष्कामता या मोहरहितता) एवं परमात्मा में आत्म-समर्पण।
मनु (१११४६) ने व्यवस्था दी है कि बिना जाने किये गये पाप का मार्जन प्रार्थना के रूप में वैदिक वचनों के जप करने से हो जाता है, किन्तु जो पाप जान-बूझकर किये जाते हैं उनका मार्जन प्रायश्चित्तों से ही होता है।
___ मनु (२२८५-८७ = वसिष्ठ २६।९-११-विष्णु० ५५।१०-२१) ने कहा है-"जप का सम्पादन (वेद के) नियमों से व्यवस्थित यज्ञों (दर्शपूर्णमास आदि) से दस गुना लाभकारी है, उपांशु-विधि से किया गया जप (यज्ञों से) सौ गुना अच्छा है और मानस जप सहन गुना अच्छा है। चारों पाकया या महायज्ञ (वैश्वदेव, बलि, आह्निक श्राद एवं अतिथि-सम्मान) वैदिक यज्ञों से मिलकर भी जप के सोलहवें भाग तक नहीं पहुंच पाते। ब्राह्मण जप द्वारा परमोच्च गति को प्राप्त करता है; वह अन्य कर्म (यथा-वैदिक यज्ञ) करे या न करे; ब्राह्मण सभी प्राणियों को मित्र बनाता है (सभी का साहाय्य करता है)।" गायत्री मन्त्र के उपांशु पाठ या जप को बड़ी महत्ता प्राप्त हुई है (ऋ० ३।६२।१०)। देखिए इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ७। जिस मन्त्र में संख्या-सम्बन्धी कोई निर्देश न हो वहाँ सौ बार जप किया जाता है (प्राय० प्रकाश)।
१. अत्र जपयज्ञं प्रकृत्य नरसिंहपुराणम्। त्रिविषो जपयशः स्यात्तस्य मेवं निबोधत। वाचिकाल्य उपांशुश्च मानसस्त्रिविषः स्मृतः॥ त्रयाणां जपयज्ञानां श्रेयान् स्यादुत्तरोत्तरम् ॥ अत्र हारीतः। उच्चस्त्वेकगुणः प्रोक्तो ध्यानाद्दशगुणः स्मृतः। उपांशुः स्याच्छसगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥ स्मृतिचन्त्रिका (१, पृ० १४९)।
२. वचनं जपनमिति समानार्थः, यस्मात् जप व्यक्तायां वाचीति स्मर्यते । तेन यत्र वचनमात्रं मन्त्रस्य क्रियते न स्तूयते नाशास्यते स जपः। शबर (जै० १२॥४॥१)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org