SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्यसूची १४१९ सिद्धान्तों की घोषणा यहीं हुई थी)। एपि० इण्डि० जरमण्डल के लिए देखिए एपि० इण्डि०, जिल्द १९, (जिल्द २१, पृ० १-७) में चन्द्रगुप्त द्वितीय के . पृ० १८। आइने अकबरी (जिल्द २, पृ० १६९) ने मथुरा शिलालेख (ई० ३८०) का वर्णन है जिससे इसे गगन-चुम्बी पहाड़ी पर एक प्रस्तर-दुर्ग कहा है। प्रकट होता है कि पाशुपत सम्प्रदाय के प्रवर्तक यहाँ कई मन्दिर हैं और उनमें एक प्रतिमा कालभैरव लकुली दूसरी शताब्दी में हुए थे। (२) (वाराणसी कही जाती है, जिसके विषय में अलौकिक कहानियाँ में एक शिवतीर्थ) मत्स्य० १८१।२६। मत्स्य प्रसिद्ध हैं। दुर्ग के भीतर झरने हैं और बहुत से (१३-४८) में देवी (कायावरोहण में) माता कही कुण्ड हैं। देखिए इम्पि० गजे० इण्डि०, जिल्द ६, गयी है। पृ० ३४९; (२) (एक आयतन के रूप में) देवल कारन्तुक--(कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत) वाम० २२॥६०।। (ती० क०, पृ० २४०); (३) (वाराणसी के अन्तकारन्धम--(दक्षिणी समुद्र पर) आदि० २१६।३।। र्गत) कूर्म० २०३६।११-३८ (राजर्षि श्वेत की कारपचव--- (यमुना पर) पंचविश ब्राह्मण २५।१०।२३, गाथा, श्वेत लगातार 'शतरुद्रिय' का पाठ करता रहता आश्व० श्रो० सू०१३।६, कात्या० श्रौ० सू०२४।६।१०। था, पद्म० ११३७११५; (४) (गोदावरी के अन्तकारप वन--(सरस्वती के उद्गम-स्थल पर) शल्य० र्गत एक शिव-तीर्थ) ब्रह्म० १४६।१ एवं ४३ (इसे ५४।१२ एवं १५ 'यायात' भी कहा जाता था); (५) (कालिञ्जरी कारवती--(थाद्ध-तीर्थ) ब्रह्माण्ड० ३।१३।९२। नाम से नर्मदा का उद्गम-स्थल, यहाँ शिवमन्दिर था) कातिकेय-(१) (देवी यशस्करी के नाम से विख्यात स्कन्द०, कालिकाखण्ड (ती० क०, पृ.० ९८); (६) है) मत्स्य ० १३।४५; (२) (गोदावरी के अन्तर्गत) (मथुरा के अन्तर्गत) वराह० १७६।१८; (७) ब्रह्म० ८१।१७, गरुड० ११८१।९। राज०७।१२५६ (यहाँ पर यह कश्मीर का कोई पर्वकार्तिकेय-कुण्ड-- (लोहार्गल के अन्तर्गत) वराह० तोय जिला प्रतीत होता है)। १५११६१। कालजर वन --मत्स्य० १८११२७ (कालञ्जर, एक कार्तिकेय-पद--(गया में) वायु० १०९।१९, ११११५४। शिवतीर्थ), ती० क०, पृ० २४ । कालकवन --महाभाष्य (जिल्द १, पृ० ४७५, पाणिनि कालतीर्थ--(१) (कोशला में) वन० ८५।११-१२, २१४११०, जिल्द ३, पृ० १७४, पाणिनि ६।३।१०९) पद्म० ११३९।११; (२) (वाराणसी के अन्तर्गत) के अनुसार यह आर्यावर्त की पश्चिमी सीमा है। डा. कर्म० ११३५।२। अग्रवाल (जे० यू० पी० एच० एस०, जिल्द १४, कालभैरव-(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग. १९२॥ भाग १, पृ० १५) के मत से यह साकेत का एक भाग १३२ । था। कालविमल-(कश्मीर के पाँच तीर्थों में एक) ह. कालकेशव---(वाराणसी के अन्तर्गत) कर्म० ११३५।७। चि०४८३ । कालकोटि ---(नैमिष वन में) वन० ९५।३, बृहत्संहिता कालसपिस्-- (काश्यप का महातीर्थ) कूर्म० २।३७।३४, १४।४। _वायु० ७७८७ (श्राद्ध के लिए एक उपयुक्त स्थल), कालजर---(या कालिंजर)-(१) (बुन्देलखण्ड में एक ब्रह्माण्ड० ३।११।९८ । पहाड़ी एवं दुर्ग) वन० ८५।५६, ८७१११, वायु० कालिका-(पितृ-तीर्थ) मत्स्य० २२।३६ । ७७।९३, वाम० ८४ (इस पर नीलकण्ठ का मन्दिर है)। कालिकाशिखर-देवीपुराण (ती० क०, पृ० २४४)। कालजर बुन्देलों की राजधानी थी, एपि० इण्डि०, कालिकाश्रम---अनु० २५।२४, (विपाशा पर) नीलजिल्द १, पृ० २१७, जिल्द ४३, पृ० १५३। काल- मत०१४८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy