________________
१३९४
धर्मशास्त्र का इतिहास
ष्ठापन काल के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । बेण्डिगेर के ताम्रपत्र (सन् १२४९ ई० ) में पण्ढरपुर को भीमरथी नदी पर स्थित पौण्डरीकक्षेत्र कहा गया है (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द १४, पृ० ६८-७५ ) एवं विठोबा को विष्णु कहा गया है । और देखिए डा० आर० जी० भण्डारकर कृत 'वैष्णविज्म, शैविज्म आदि' ( पृ० ८८) एवं 'हिस्ट्री आव दि डकन' (द्वितीय संस्करण, पृ० ११५ - ११६), बम्बई गजेटियर (जिल्द २०, पृ० ४१९-४२० ) । विवेचनों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पण्ढरपुर को कन्नड़ लोग 'पण्डरागे' के नाम से पुकारते थे और इसका एक नाम 'पाण्डरंगपल्ली' भी था। राष्ट्रकूट राजा अविधेय ने जयद्विट्ठ नामक ब्राह्मण को दान किया था, सम्भवतः इसी 'विट्ठ' से आगे 'विट्ठल' नाम पड़ा।
गोपालाचार्यकृत 'विट्ठलभूषण' नामक ग्रन्थ में हेमाद्रि (तीर्थ) से ग्यारह श्लोक उद्धृत हैं, जिनका सारांश यों है--भैमी नदी के दक्षिण तट पर सर्वोत्कृष्ट तीर्थ उपस्थित है और वहाँ एक भव्य प्रतिमा है, इस स्थल को पौण्डरीक क्षेत्र कहा जाता है और इस क्षेत्र में पाण्डुरंग नामक सर्वश्रेष्ठ देव की पूजा होती है। यह पुष्कर से तिगुना, केदार से छः गुना एवं वाराणसी से दसगुना पवित्र है । द्वापरयुग के अन्त में २८वें कल्प में पुण्डरीक ने यहाँ कठिन तप किया और वह अपने माता-पिता के प्रति अति भक्तिप्रवण था । गोवर्धन पर्वत पर गायों को चराने वाले कृष्ण उसकी पितृभक्ति से अति प्रसन्न हो गये। हेमाद्रि के ग्रन्थ की रचना लगभग सन् १२६०-१२७० ई० में हुई थी और इसके श्लोक स्कन्दपुराण से उद्धृत हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि पण्ढरपुर उन दिनों एक तीर्थ था, पुण्डरीक ('पुण्डलीक' जो मराठी रूप है) भी तब प्रसिद्ध हो चुका था और विठोबा की प्रतिमा भी उस समय उपस्थित थी । १५वीं शताब्दी में पण्ढरपुर अति पवित्र माना जाता था, क्योंकि चैतन्य एवं वल्लभ नामक वैष्णव आचार्य यहाँ पधारे थे (देखिए प्रो० एस्० के० दे कृत 'वैष्णव फेथ एण्ड मूवमेण्ट इन बेंगाल,' पृ० ७१, एवं मणिलाल सी० परिख कृत 'श्री वल्लभाचार्य' पृ० ५६-५९) ।
जैसा कि पहले ही संकेत किया जा चुका है, प्रतिमा कई बार यहाँ से अन्यत्र ले जायी गयी और पुनः यहीं लायी गयी। श्री खरे महोदय ने मध्य काल के संस्कृत, मराठी एवं कन्नड़ लेखकों के वचनों को उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्रतिमा प्राचीन नहीं है और १७वीं शताब्दी में भी यह नहीं थी, क्योंकि सन्त तुकाराम की कविता में वर्णित प्रतिमा विशेषताओं से आज की प्रतिमा- विशेषताएँ मेल नहीं खातीं । किन्तु यह निष्कर्ष शुद्ध नहीं है, क्योंकि इसका आधार संकेत मात्र है और प्रतिमा इतनी ऊबड़-खाबड़ एवं घिस गयी है कि इस पर वे वस्त्र-चिह्न आदि स्पष्ट नहीं हो पाते और उनके आधार पर निकाले गये निष्कर्ष सन्देह उत्पन्न कर देते हैं। यदि यह मान लिया जाय कि प्रतिमा का स्थानान्तरण कई बार हुआ था, तो भी यह कहना कठिन है कि यह तेरहवीं शताब्दी या उसके पहले की नहीं है ।
प्रतिमा को कई नामों से पुकारा जाता है, यथा- पाण्डुरंग, पंढरी, विट्ठल विट्ठलनाथ एवं विठोबा । प्राकृत में विष्णु को वि, विष्णु, वेण्डु, वेठ आदि कहा जाता है। कन्नड़ में विष्णु के कई रूप हैं, यथा-- विट्टी, विट्टीग, विट्ट आदि । नामों के परिवर्तन प्राकृत एवं कन्नड़ के व्याकरणों के नियमों का पालन नहीं करते । श्री ए० के० प्रियोल्कर ने 'भगत नामदेव आव दि सिख्स' नामक अपने विद्वत्तापूर्ण लेख (बम्बई विश्वविद्यालय का जर्नल, १९३८, पृ० २४) में बताया है कि सिक्खों के आदि ग्रन्थस्थ, नामदेव के भजनों में भगवान् को 'बीठल' या 'बिठलु' कहा गया है, नरसिंह मेहता
( जिल्द ११, पृ० ७७१-७७८); डा० कृष्ण का आर्यालाजिकल सर्वे रिपोर्ट्स आव मैसूर ( सन् १९२९, १० १९७-२१०) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org