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________________ पंढरपुर के विट्ठलनाथ १३९३ कृत्यों में मन्त्रों एवं स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं), परिचारक (जो एक लम्बी रजत स्थाली में जल लाते हैं जिससे पुजारी देवता की मूर्ति को स्नान कराते हैं, और प्रातः एवं सायं की आरती के लिए दीप भी वे ही लाते हैं), हरिवास (जो प्रातः सायं एवं रात्रि में देव पूजन के समय पाँच श्लोक पढ़ते हैं), दिग्रे (जो प्रातःकाल, शृंगार के उपरान्त एवं आरती के पूर्व मूर्ति के समक्ष दर्पण दिखाते हैं), दिस्ते ( प्रकाश वाहक, जो उस समय मशाल दिखाते हैं जब कि रात्रि के अन्तिम कृत्य समाप्त हो जाते हैं, और वर्ष में तीन बार अर्थात् आषाढ़ एवं कार्तिक की पूर्णिमा को एवं दस्रा रात्रि को, प्रकाशजुलूस में देवता की चट्टियों को ढोते हैं), वांगे ( जो प्रातः सायं एवं रात्रि के कृत्यों में पार्श्व-कोष्ठ के बाहर चाँदी या सोने की गदा पकड़े खड़ा रहता है) । रखुमाई देवी के पुजारी उत्पात के नाम से प्रसिद्ध हैं और इनके कुलों की संख्या सौ से ऊपर है। बम्बई गजेटियर ( पृ० ४२७-४३०) ने विठोबा मन्दिर की पूजा का सविस्तर वर्णन किया है, किन्तु स्थानाभाव से हम ऐसा नहीं कर सकेंगे। सारतत्त्व यह है कि देवता को सर्वथा मानव की भांति समझा गया है उन्हें स्नान कराना चाहिए, उनका श्रृंगार होना चाहिए. उनके लिए संगीत होना चाहिए। इतना ही नहीं, उन्हें थकावट को दूर करने के लिए सोना चाहिए आदि। एक बात ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत के अन्य मन्दिरों की भाँति यहाँ गायिकाएँ एवं नर्तकियों, जो देवदासी कहलाती हैं, नहीं पायी जातीं। विट्ठल या विठोबा की प्रतिमा पौने चार फुट लम्बी है और आधार के साथ यह एक ही शिला से निर्मित हुई है। कालावधि के कारण यह खुरदरी हो गयी है। प्रतिमा खड़ी है जिसके हाथ कटि पर आश्रित हैं; बायें हाथ में शंख है और दाहिने में चक्र । प्रतिमा की मेखला पर हलके रूप में वस्त्राकृति है और वस्त्र का एक छोर दाहिनी जाँघ पर लटका हुआ है। गले में हार है और कानों में लम्बे-लम्बे कुण्डल जो गरदन को छूते हैं। सिर पर गोलाकार टोपी है। यात्री लोग पहले प्रतिमा का आलिंगन करते थे और उसके पैरों का स्पर्श करते थे, किन्तु सन् १८७३ के उपरान्त अब केवल चरणस्पर्श मात्र होता है। बम्बई गजेटियर (जिल्द २०, पृ० ४३१ ) में ऐसा लिखित है कि मुसलमान आक्रामकों एवं वादशाहों से रक्षा करने के लिए प्रतिमा विभिन्न समयों में कई स्थानों पर ले जायी गयी थी। विठोबा के मन्दिर से लगभग ५०० गज पूर्व पुण्डलीक का मन्दिर है, जो पंढरपुर के पूजा-मन्दिरों में एक है। इस मन्दिर में कोई देव-प्रतिमा नहीं है। यहाँ विट्ठल के महान् भक्त पुण्डलीक ने अपने अन्तिम दिन बिताये थे और यहीं मृत्यु को प्राप्त भी हुआ। पुण्डलीक सम्भवतः पण्डरपुर का कोई ब्राह्मण था, जो आरम्भिक अवस्था में अकर्तव्यशील था। उसने अपने माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार किया। उसने रोहिदास नामक मोची की कर्तव्यशीलता देखकर पश्चात्ताप किया और एक महान् कर्तव्यशील पुत्र बन गया। ऐसी जनश्रुति है कि स्वयं विट्ठल देव उसके यहाँ आये । विठोबा एवं पुण्डलीक एक-दूसरे के साथ इस प्रकार संयोजित हो गये हैं कि सभी यात्री भोजन करने के पूर्व या अन्य अवसरों पर 'पुण्डलीक वरदे हरि विट्ठल' कहकर जयघोष करते हैं । पुण्डलीक की कथा के लिए देखिए बम्बई गजेटियर (जिल्द २०, पृ० ४३२-४३३) । पठरपुर में कई एक प्रसिद्ध मन्दिर हैं, यथा-- विष्णुपद, त्रियम्बकेश्वर, चन्द्रभागा, जनाबाई की कोटरी आदि, जिनका वर्णन यहाँ नहीं किया जायगा। भीमा नदी पष्ठरपुर की सीमा के भीतर चन्द्रभागा कहलाती है और इसमें स्नान करने से पाप कट जाते हैं। विठोबा मन्दिर के विषय में कई एक प्रश्न उठाये गये हैं, यथा-- विठोबा की प्रतिमा कब बनी, वर्तमान प्रतिमा प्राचीन ही है या दूसरी, पण्ठरपुर का प्राचीन नाम क्या है और विट्ठल की व्युत्पत्ति क्या है ?५२ प्रतिमा के प्रति ५२. इस विषय में देखिए शोलापुर गजेटियर (बम्बई गजेटियर, जिल्द २०); इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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