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नर्मदा-माहात्म्य
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दूसरा नाम है और यह सम्भव है कि 'रेवा' से ही 'रेवोत्तरस' नाम पड़ा हो। पाणिनि (४।२।८७ ) के एक वार्तिक ने 'महिष्मत्' की व्युत्पत्ति 'महिष' से की है, इसे सामान्यतः नर्मदा पर स्थित माहिष्मती का ही रूपान्तर माना गया है। इससे प्रकट होता है कि सम्भवतः वार्तिककार को (लगभग ई० पू० चौथी शताब्दी में ) नर्मदा का परिचय था । रघुवंश (६।४३ ) में रेवा ( अर्थात् नर्मदा ) के तट पर स्थित माहिष्मती को अनूप की राजधानी कहा गया है।
महाभारत एवं कतिपय पुराणों में नर्मदा की चर्चा बहुधा हुई है। मत्स्य ० ( अध्याय १८६ - १९४, ५५४ श्लोक ), पद्म० ( आदिखण्ड, अध्याय १३-२३, ७३९ श्लोक, जिनमें बहुत से मत्स्य० के ही श्लोक हैं), कूर्म ० ( उत्तरार्ध, अध्याय ४०-४२, १८९ श्लोक ) ने नर्मदा की महत्ता एवं उसके तीर्थों का वर्णन किया है। मत्स्य ० ( १९४/४५) एवं पद्म० (आदि, २१।४४) में ऐसा आया है कि उस स्थान से जहाँ नर्मदा सागर में मिलती है, अमरकण्टक पर्वत तक, जहाँ से वह निकलती है, १० करोड़ तीर्थ हैं । अग्नि० ( ११३।२) एवं कूर्म ० ( २।४०।१३) के मत से क्रम से ६० करोड़ एवं ६० सहस्र तीर्थ हैं । नारदीय० (उत्तरार्ध, अध्याय ७७) का कथन है कि नर्मदा के दोनों तटों पर ४०० मुख्य तीर्थ हैं ( श्लोक १ ), किन्तु अमरकण्टक से लेकर साढ़े तीन करोड़ हैं (श्लोक ४ एवं २७-२८ ) । ५ वनपर्व (१८८।१०३ एवं २२२।२४ ) ने नर्मदा का उल्लेख गोदावरी एवं दक्षिण की अन्य नदियों के साथ किया है । उसी पर्व ( ८९।१ - ३ ) में यह भी आया है कि नर्मदा आर्त देश में है, यह प्रियंगु एवं आम्र- कुञ्जों से परिपूर्ण है, इसमें वेत्र लता के वितान पाये जाते हैं, यह पश्चिम की ओर बहती है और तीनों लोकों के सभी तीर्थ यहाँ (नर्मदा में) स्नान करने को आते हैं ।" मत्स्य एवं पद्म० ने उद्घोष किया है कि गंगा कनखल में एवं सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र हैं, किन्तु नर्मदा सभी स्थानों में, चाहे ग्राम हो या वन । नर्मदा केवल दर्शन मात्र से पापी को पवित्र कर देती है; सरस्वती (तीन दिनों में) तीन स्नानों से, यमुना सात दिनों के स्नानों से और गंगा केवल एक स्नान से ( मत्स्य० १८६ । १०-११ = पद्म०, आदि, १३।६-७ = कूर्म० २।४०।७-८ ) । विष्णुधर्मसूत्र ( ८५।८) ने श्राद्ध के योग्य तीर्थों की सूची दी है, जि में नर्मदा के सभी स्थलों को श्राद्ध के योग्य ठहराया है । नर्मदा को रुद्र के शरीर से निकली हुई कहा गया है, जो इस बात का कवित्वमय प्रकटीकरण मात्र है कि यह अमरकण्टक से निकली है जो महेश्वर एवं उनकी पत्नों का निवास स्थल कहा जाता है (मत्स्य० १८८।९१ ) | M वायु० (७७।३२) में ऐसा उद्घोषित है कि नदियों में श्रेष्ठ पुनील नर्मदा पितरों की पुत्री है और इस पर किया गया श्राद्ध अक्षय होता है । " मत्स्य० एवं कूर्म० का कथन है कि यह १०० योजन लम्बी एवं दो योजन चौड़ी
३५. यद्यपि रेवा एवं नर्मदा सामान्यतः समानार्थक कही जाती हैं, किन्तु भागवतपुराण ( ५ । १९।१८) ने इन्हें पृथक्-पृथक् (तापी-रेवा-सुरसा-नर्मदा ) कहा है, और वामनपुराण (१३।२५ एवं २९-३०) का कथन है कि रेवा विन्ध्य से तथा नर्मदा क्षपाद से निकली है। सार्वत्रिकोटितीर्थानि गवितानीह वायुना । दिवि भुव्यन्तरिक्षे च रेवायां तानि सन्ति च ॥ नारदीय० ( उत्तर, ७७ २७-२८)।
३६. ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में गुजरात एवं काठियावाड़ को आनतं कहा जाता था। उद्योगपर्व ( ७-६ ) में द्वारका को आनर्त नगरी कहा गया है। नर्मदा आनर्त में होकर बहती मानी गयी है अतः ऐसी कल्पना की जाती है कि महाभारत के काल में आनर्त के अन्तर्गत गुजरात का दक्षिणी भाग एवं काठियावाड़ दोनों सम्मिलित थे।
३७. नर्मदा सरितां श्रेष्ठा द्रवेहाद्विनिःसृता । तारयेत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ मत्स्य० (१९० | १७= कूर्म० २|४०|५ == पद्म०, आदिखण्ड १७।१३ ) ।
३८. पितॄणां दुहिता पुण्या नर्मदा सरितां वरा । तत्र श्रद्धानि दत्तानि अक्षयाणि भवन्त्युत ॥ वायुपुराण (७७१३२)।
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