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________________ १३८६ धर्मशास्त्र का इतिहास ब्रह्म० (७०।३-४:-- नारदीय०, उत्तर, ५२।२५-२६) ने अन्त में कहा है--'यह तिगुना सत्य है कि यह (पुरुषोत्तम) क्षेत्र परम महान् है और सर्वोच्च तीर्थ है। एक बार सागर के जल से आप्लुत पुरुषोत्तम में आने पर व्यक्ति को पुनः गर्भवास नहीं करना पड़ता और ऐसा ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने पर भी होता है। महान् वैष्णव सन्त चैतन्य ३० वर्ष की अवस्था में सन् १५१५ ई० में पुरी में ही सदा के लिए रहने लगे और १८ वर्षों के उपरान्त सन् १५३३ में उन्होंने अपना शरीर-त्याग किया। उन्होंने गजपति राजा प्रतापरुद्रदेव पर, जिसने उड़ीसा पर सन् १४९७-१५४० ई० तक राज्य किया, बहुत ही बड़ा प्रभाव डाला था। कवि कर्णपूर के नाटक चैतन्यचन्द्रोदय में ऐसा व्यक्त किया गया है कि राजा ने सन्त से मिलने की प्रबल उत्कण्ठा प्रकट की और कहा कि यदि सन्त की कृपादृष्टि उस पर नहीं पड़ेगी तो वह अपने प्राण त्याग देगा। यह भक्तों की अतिशयोक्तिपूर्ण विधि का परिचायक मात्र है। आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु पुरी एवं उड़ीसा में विष्णु के साथ देव के रूप में पूजित होने लगे (हप्टर, 'उड़ीसा', जिल्द १ पृ० १०९)। कवि कर्णपूर ने अपने नाटक के आठवें अंक में सार्वभौम नामक पात्र द्वारा कहलाया है कि जगन्नाथ एवं चैतन्य में कोई अन्तर नहीं है; अंतर केवल इतना ही है कि जहाँ जगन्नाथ 'दारुब्रह्म' (काष्ठ की प्रतिमा में अभिव्यंजित दैवी शक्ति) हैं, वहाँ चैतन्य नरब्रह्म' हैं (पृ० १६७) । कवि कर्णपूर की संस्कृत-रचना'चैतन्यचरितामृत' (सर्ग १४-१८) में पुरी में चैतन्य की भक्ति-प्रवणता एवं अलौकिक आनन्दानुभूतिमय जीवन का प्रदर्शन किया गया है और उसमें रथ एवं जगन्नाथ सम्बन्धी अन्य उत्सवों में चैतन्य द्वारा लिये गये प्रमुख भाग का चित्रवत् वर्णन पाया जाता है। डा० एस्. के० देने मत प्रकाशित किया है कि प्रतापरुद्र द्वारा चैतन्य के नवीन धर्म में प्रविष्ट होने के विषय में हमें पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते (वैष्णव फेथ एण्ड मवमेण्ट इन बेंगाल, प०६७)। जगन्नाथ के विशाल मन्दिर की दीवारों पर जो अश्लील एवं कामुक हाव भावपूर्ण शिल्प है उसने इस उज्ज्वल मन्दिर की विशेषता पर एक काला चिह्न-सा फेर दिया है, और यही बात वहाँ की नर्तकियों के विषय में भी है जो अपनी चक्रित आँखों से कामुकता का भद्दा प्रदर्शन करती रहती हैं। पश्चिमी लेखकों ने इस ओर प्रबल संकेत किया है (यथाइण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द १,१० ३२२, हण्टर का ग्रन्थ 'उड़ीसा', जिल्द १, पृ० १११ एवं १३५)। नर्तकियों की उपस्थिति अतीत इतिहास की वसीयत-सी है। ब्रह्मपुराण (६५।१५, १७ एवं १८) ने ज्येष्ठ की पूर्णिमा पर जगन्नाथ के उत्सव के समय स्नान की चर्चा करते हुए लिखा है कि उस समय दुन्दुभि-वादन होता था, बांसुरी का स्वर गुंजार होता था, वैदिक मन्त्रों का पाठ होता था और बलराम एवं कृष्ण की प्रतिमाओं के समक्ष चामरधारिणी एवं कुचभार से नम्र सुन्दर वेश्याओं का नर्तन आदि होता था।" नर्मदा गंगा के उपरान्त भारत की अत्यन्त पुनीत नदियों में नर्मदा एवं गोदावरी के नाम आते हैं। इन दोनों के विषय में भी संक्षेप में कुछ लिख देना आवश्यक है। वैदिक साहित्य में नर्मदा के विषय में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। शतपथब्राह्मण (१२।९।३।१)ने रेवोत्तरस की चर्चा की है, जो पाटव चाक एवं स्थपति (मुख्य) था, जिसे सृञ्जयों ने निकाल बाहर किया था। रेवा नर्मदा का ३३. मुनीनां वेदशब्देन मन्त्रशब्दैस्तथापरैः। नानास्तोत्ररवः पुण्यैः सामशग्दोपबृंहितः॥ श्यामश्याजनैश्चैव कुचभारावनामिभिः। पीतरक्ताम्बराभिश्च माल्यदामावनामिभिः॥.....चामरे रत्नदण्डेश्च वीज्यते रामकेशवो। ब्रह्म० (६५।१५, १७ एवं १८)। ३४. रेवोत्तरसम ह पाटवं चाकं स्थपति सृञ्जया अपरुरुधुः। शतपथबा० (१२।९।३।१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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