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पुरी के तीर्थों की यात्रा, गुण्डिचा एवं देहत्याग महिमा
१३८५ के निर्माण के लिए कहा और वही सर मार्कण्डेय-सर घोषित हुआ। ब्रह्म० (५७-३-४) के मत से यात्री को मार्कण्डेयसर में स्नान करना चाहिए, सिर को तीन बार डुबोना चाहिए, तर्पण करके शिव मन्दिर में जाना चाहिए और 'ओं नमः शिवाय' के मूलमन्त्र से पूजन करना चाहिए; पुनः अघोर एवं पौराणिक मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए।" तब यात्री को मार्कण्डेय-सर में स्नान करके शिव मन्दिर में जाना चाहिए, वट के पास जाकर उसकी प्रदक्षिणा तीन बार करनी चाहिए, और टिप्पणी में दिये हुए मन्त्र से पूजा करनी चाहिए। यह ज्ञातव्य हैं कि कृष्ण वट के रूप में हैं ( न्यग्रोधाकृतिकं विष्णु प्रणिपत्य ) । वट को कल्पवृक्ष भी कहा गया है ( ब्रह्म० ५७।१२,६०।१८) । यात्री को कृष्ण के सम्मुख खड़े हुए गरुड़ को प्रणाम करना चाहिए और तब मन्त्रों के साथ कृष्ण, संकर्षण एवं सुभद्रा की पूजा करनी चाहिए। संकर्षण एवं सुभद्रा के मन्त्र हैं क्रम से ब्रह्म० में (५७।२२-२३) एवं (५७।५८ ) । कृष्ण की पूजा १२ अक्षरों (ओं नमो भगवते वासुदेवाय ) या ८ अक्षरों (ओं नमो नारायणाय ) वाले मन्त्र से की जाती है। ब्रह्म० (५७। ४२-५१) ने भक्तिपूर्वक कृष्ण के दर्शन करने से उत्पन्न फलों एवं मोक्ष - फलप्राप्ति की चर्चा की है। पुरी में सागर-स्नान कभी भी किया जा सकता है। किन्तु पूर्णिमा के दिन का स्नान अति महत्त्वपूर्ण कहा जाता है ( ब्रह्म० ६०।१० ) । सागर-स्नान का विस्तृत वर्णन ब्रह्म० के अध्याय ६२ में हैं। यात्री को इन्द्रद्युम्न-सर में स्नान, देवों, ऋषियों एवं पितरों को तर्पण एवं पितृ -पिण्डदान करना होता है ( ब्रह्म०६३।२-५ ) ।
कवि गंगाधर के गोविन्दपुर वाले प्रस्तरलेख (एपि० इण्डि०, जिल्द २, पृ० ३३० शक संवत् १०५९ अर्थात् सन् ११३७-३८ ई० ) में पुरुषोत्तम की आर संकेत मिलता है।
ब्रह्म० के अध्याय ६६ में इन्द्रद्युम्न-सर के तट पर जहाँ एक मण्डप में कृष्ण, संकर्षण एवं सुभद्रा का कुछ काल तक निवास हुआ था, सात दिनों की गुण्डि वायात्रा की चर्चा हुई है। तीर्थचि० (१० १५७ - १५९ ) ने इस अध्याय को उद्धृत किया है और इसे गुण्डिका की संज्ञा दी है, किन्तु 'चैतन्यचन्द्रोदय' नामक नाटक के आरम्भ में इसे गुण्डिया कहा गया है। ऐसा कहा जाता है कि गुण्डिचा महामन्दिर से लगभग दो मील की दूरी पर जगन्नाथ का ग्रीष्म-निवासस्थल है। यह शब्द सम्भवतः 'गुण्डि' से निकला है जिसका बंगला एवं उड़िया (देखिए डा० मित्र, 'ऐण्टीक्विटीज़ आव उड़ीसा, जिल्द २, पृ० १३८-१३९) में अर्थ होता है लकड़ी का कुन्दा; यह उस काष्ठ की ओर संकेत करता है। जिसे इन्द्रद्युम्न ने सागर में तैरता हुआ पाया था। और देखिए महताब कृत 'हिस्ट्री आव उड़ीसा ( पृ० १६१ ) । यह ज्ञातव्य है कि ब्रह्मपुराण में पुरुषोत्तमतीर्थ में धार्मिक आत्महत्या की ओर संकेत मिलता है, यथा--'जो लोग पुरुषोत्तमक्षेत्र में वटवृक्ष पर चढ़कर या वटवृक्ष एवं सागर के मध्य में प्राण छोड़ते हैं वे बिना किसी संशय के मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। जो व्यक्ति जान या अनजान में पुरुषोत्तम यात्रा के मार्ग में या श्मशान में या जगन्नाथ के गृहमंडल में या रथ के मार्ग में या कहीं भी प्राण त्याग करते हैं वे मोक्ष पाते हैं । अतः मोक्षामिकांक्षों को इस तीर्थ पर सर्वप्रयत्न से प्राण त्याग करना चाहिए' (१७७।१६, १७, २४ एवं २५ ) |
३१. मूलमन्त्रेण सम्पूज्य भार्कण्डेयस्य चेश्वरम् । अघोरेण च भो विप्राः प्रणिपत्य प्रसादयेत् । त्रिलोचन नमस्तेस्तु नमस्ते शशिभूषण । त्राहि मां त्वं विरूपाक्ष महादेव नमोऽस्तु ते ॥ ब्रह्म० (५७।७-८ - नारदीय०, उत्तर ५५।१८१९) । तीर्यचिन्तामणि ( पृ० ८८ ) के अनुसार अघोरमन्त्र यह है--'ओम अघोरेभ्योषघोरेभ्यो घोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वसर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।' यह मन्त्र मंत्रायणी -संहिता (२।९।१०) एवं तै० आ० ( १०/४५।१ ) में आया है ।
३२. ओं नमोऽज्यक्तरूपाय महाप्रलयकारिणे । महद्रसोपविष्टाय न्यग्रोधाय नमोस्तु ते ।। अमरस्त्वं सदा कल्पे हरेश्वायतनं वट । न्यग्रोध हर मे पापं कल्पवृक्ष नमोऽस्तुते ॥ ब्रह्म० (५७११३-१४ = नारदीय०, उत्तर ५५।२४-२५) ।
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