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________________ १०३२ धर्मशास्त्र का इतिहास बन्दर, घोड़ा, ऊँट, हिरन, हाथी, बकरी, भेड़, मछली या भैंस का हनन संकरीकरण (किसी को वर्णसंकर बनाने के पाप) के समान मानना चाहिए। विष्णु० (२९।१) के मत से संकरीकरण ग्राम या जंगल के पशुओं का हनन है। मनु (११६९) का कथन है कि निन्द्य लोगों (जो मनु ४१८४ में वर्णित हैं) से दानग्रहण, व्यापार, शूद्रसेवा एवं झूठ बोलने से व्यक्ति धर्म-संमान के अयोग्य (अपात्रीकरण) हो जाता है। विष्णु० (४०।१) ने इसमें ब्याज वृत्ति से जीविकोपार्जन भी जोड़ दिया है। मनु (१११७०) ने व्यवस्था दी है कि छोटे या बड़े कीट-पतंगों या पक्षियों का हनन, मद्य के समीप रखे गये पदार्थों का खाना, फलों, ईंधन एवं पुष्पों को चुराना एवं मन की अस्थिरता मलावह (जिससे व्यक्ति अशुद्ध हो जाता है) कर्म कहे जाते हैं। यही बात विष्णु० (४१।१-४) ने भी कही है। विष्णु० (४२।१) का कथन है कि वे दुष्कृत्य जो विभिन्न प्रकारों में उल्लिखित नहीं हैं, उनकी प्रकीर्णक संज्ञा है। वृद्ध हारीत (९।२१०-२१५) ने बहुत-से प्रकीर्णक दुष्कृत्य गिनाये हैं। ___ यथा-ईंधन के लिए बड़े-बड़े पेड़ों का काटना; • छोटे एवं बड़े कीट-पतंगों का हनन; ऐसे भोज्य-पदार्थों का सेवन जो भावदुष्ट हों (निषिद्ध भोजन के रंग एवं गन्ध की समानता के कारण अथवा जब परोसना असम्मानपूर्वक हुआ हो), या ऐसे भोजन का सेवन जो कालदुष्ट हो (एकादशी या ग्रहण के समय भोजन करना या घर में सूतक पड़ने पर या सूतक वाले घर में भोजन करना या बासी भोजन करना) या क्रियादुष्ट हो (ऐसी क्रिया, जो खाली हाथ से भोजन परोसने से व्यक्त होती है या पतित, चांडाल या कुत्ता आदि के देखने से प्रकट होती है, देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अ० २२); मिट्टी, चर्म, घास, लकड़ी की चोरी; अत्यधिक भोजन करना; झूठ बोलना; विषयभोग के लिए चिन्तित रहना; दिन में सोना; अफवाह उड़ाना; दूसरे को अफवाह सुनने को उकसाना; दूसरे के घर में खाना; दिन में सम्भोग करना; मासिक धर्म के समय या बच्चा जनने के बिल्कुल उपरान्त स्त्रियों को देखना; दूसरे की पत्नियों पर दृष्टिपात करना; उपवास, श्राद्ध या पर्व के दिनों में सम्भोग करना; शूद्र की नौकरी करना ; नीच लोगों से मित्रता करना; उच्छिष्ट भोजन को छूना; स्त्रियों से हँसी-ठट्ठा करना; अनियमित ढंग (प्रेम प्रदर्शन) से बातचीत करना; खुले केशों वाली स्त्रियों की ओर ताकना। यह पता चला होगा कि उपर्युक्त प्रकीर्णक दोषों में कुछ ऐसे भी हैं जो याज्ञवल्क्य द्वारा वर्णित उपपातकों के अन्तर्गत आ जाते हैं; यथा ईंधन के लिए बड़े वृक्षों का कर्तन, शूद्र को सेवा, नीच लोगों से मित्रता। पापों के विभिन्न प्रकारों के विषय में पढ़ लेने के उपरान्त अब हमें उनसे उत्पन्न फलों एवं उनके दूर करने के साधनों पर विचार कर लेना है। अर्थात् हमें यह देखना है कि वैदिक एवं संस्कृत-धर्मसाहित्य में पापों के फलों के प्रश्न पर एवं उनके दूरीकरण के साधनों पर किस प्रकार विचार किया गया है और कौन-सी व्यवस्थाएँ प्रतिपादित की गयी हैं। हमने ऊपर देख लिया है कि ऋग्वेद काल के ऋषियों ने किस प्रकार देवताओं, विशेषत: अदिति, मित्र, वरुण, आदित्यों एवं अग्नि के प्रति अपने को आगः या एनः (जो पाप के वाचक हैं) आदि से बचाने के लिए स्तुतियां की हैं। ऋषियों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने देवताओं के धर्मों या व्रतों का बहुधा अतिक्रमण किया है। इसी से वे क्षमायाचना के लिए प्रेरित मोहुए हैं। वे अपने अपराध के परिणामों से भयभीत थे, अर्थात् देवताओं के लिए व्यवस्थित धर्मों एवं व्रतों के न करने पर उनके कोप से डरा करते थे। उन्होंने ऐसा समझा था कि ईश्वर उनके नियमोल्लंघन से उन पर विपत्ति, नाश, रोग एवं मृत्यु ढाह देता है। देखिए ऋग्वेद (१।२५।२, ७१८९।५, १०८९।८-९, २।२९।६, ९३७३३८) जहाँ वरुण, मित्र, अर्यमा एवं इन्द्र से दण्ड न देने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाएँ एवं स्तुतियाँ की गयी हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ऋषिगण (मंत्रद्रष्टा) अपने उन कर्मों के फलों से परिचित थे जिनसे वे देवताओं द्वारा दण्डित हो सकते थे। दूसरी ओर ऐसी भी बातें पायी जाती हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि ईश्वर या देवता प्रसन्न होने पर अपने पूजक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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