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उपपातक
१०३१ (मृत्यु के उपरान्त आत्मा एवं विश्व में विश्वास न करना), अपनी स्थिति के उपयुक्त व्रतों का परित्याग (यथा वैदिक विद्यार्थी का ब्रह्मचर्य परित्याग, ब्रह्महत्या के लिए अपराधयाआरम्भ किये गये प्रायश्चित्त का परित्याग),बच्चों का विक्रय, अनाज, साधारण धातुओं (यथा सीसा, ताँबा) या पशु की चोरी, जो लोग यज्ञ करने के अधिकारी नहीं हैं, उनका पुरोहित होना (यथा शूद्र या वात्य आदि का), पिता-माता या पुत्र को अकारण घर से निकाल बाहर करना, तड़ाग या आराम (वाटिका) का विक्रय (जो वास्तविक रूप में जनसाधारण को न दे दिये गये हों किन्तु सबके प्रयोग में आते हों), कुमारी कन्या के साथ दूषण, उस विवाह में पौरोहित्य करना जहाँ बड़े भाई के पहले छोटे भाई का विवाह हो रहा है, ऐसे व्यक्ति से अपनी पुत्री का विवाह रचाना जो अपने बड़े भाई के पूर्व विवाह रचा रहा हो, कुटिलता (गुरु-सम्बन्धी कुटिलता को छोड़कर जो सुरापान के समान मानी गयी है), व्रतलोप (अपने से आरम्भ किये गये व्रत का परित्याग), केवल अपने लिए भोजन बनाना (देवताओं, अतिथियों की बिना चिन्ता किये, जिसकी निन्दा ऋ० १०।११७।६ एवं मनु ३।११८ ने की है),ऐसी स्त्री से सम्भोग-कार्य जो शराब पीती हो (यहाँ तक कि अपनी स्त्री भी), अन्य विषयों के अध्ययन के पूर्व वेद-स्वाध्याय का परित्याग, श्रौत या स्मार्त अग्नियों में होम न करना, अपने पुत्र का त्याग, अपने सम्बन्धियों (यथा मामा या चाचा, जब कि सामर्थ्य हो) का भरण-पोषण न करना, केवल अपना भोजन पकाने में ईधन के लिए किसी बड़े वृक्ष को काटना, स्त्री द्वारा अपना भरण-पोषण करना (अर्थात् उसके अनैतिक कार्यों द्वारा या उसके स्त्री-धन द्वारा जीविकोपार्जन करना) या पशुओं का हनन करके या जड़ी बूटियों के (जादू या इन्द्रजाल में) प्रयोग द्वारा जीविकोपार्जन, ऐसे यन्त्रों (मशीनों) को बैठाना जिनसे जीवों की हत्या या उनको पीड़ा हो (तेल या ईख का रस निकालने के लिए कोल्हू का प्रयोग), धन के लिए अपने को बेचना अथवा दासत्व, शूद्र का भृत्य होना, नीच लोगों से मित्रता करना, नीच जाति की नारी से योनि-सम्बन्ध करना (स्त्री रूप में या रखैल के रूप में), चारों आश्रमों से बाहर रहना अथवा अनाश्रमी होना, दूसरे द्वारा निःशुल्क एवं दान में दिये गये धन को खाकर मोटा होना (परान्न-परिपुष्टता), असच्छास्त्राधिगमन (चार्वाक जैसे नास्तिकों के ग्रन्थों का अध्ययन), आकरों (सोना आदि धातुओं की खानों) की अध्यक्षता एवं भार्याविक्रय (अपनी स्त्री को बेचना)।
उपर्युक्त लम्बी सूची में कुछ उपपातक छूट भी गये हैं, यथा-वसिष्ठ (१३१८) द्वारा वर्णित एनस्विनः (उपपातक, विश्वरूप, याज्ञ० ३।२२९-२३६)। याज्ञवल्क्यस्मृति में उल्लिखित अधिकांश उपपातक मनु (१११५९-६६) में पाये जाते हैं, किन्तु कुछ छूट भी गये हैं, यथा-अभिचार (श्येनयाग नामक कर्म जो शत्रुनाश के लिए किया जाता है), मूसकर्म (किसी व्यक्ति को अपने प्रभाव में लाने के लिए जड़ी-बूटियों का प्रयोग अर्थात् वशीकरण)। मिताक्षरा (याज्ञः ३।२४२) का कथन है कि कुछ उपपातकों के बार-बार करने से मनुष्य पतित हो जाता है (गौ० २१३१) । इसी से विश्वरूप ने उपपातक की व्युत्पत्ति यों की है-"उपचय से (लगातार बढ़ते रहने या संग्रह से) या उपेत्य (लगातार स्पृहा से) जिसका सेवन किया जाय वह उपपातक कहा जाता है।"२०
मनु (१११६७=अग्नि० १६८१३७-३८) एवं विष्णु (३८६१-६) ने कुछ दोषों को जातिभ्रंशकर (जिनसे जातिव्युतता प्राप्त होती है) की संज्ञा दी है, यथा ब्राह्मण को (छड़ी या हाथ से) पीड़ा देना, ऐसी वस्तुओं (यथा लहसुन आदि) कोसूंघना जिसे नहीं सूंघना चाहिए एवं आसव या मद्य सूंघना, धोखा देना (कहना कुछ करना कुछ), मनुष्य (पशु के साथ भी, विष्णु के मत से) के साथ अस्वाभाविक अपराध करना। मनु (१०६८=अग्नि० १६८।३८-३९) के मत से
२०. उपपातकसंज्ञाप्येवमयंव। उपचयेन उपेत्य वा सेव्यमानं पातकमेव स्यादिति। अत एव गौतमेन पातकमध्ये निन्वितकर्माम्यासो रशितः। विश्वरूप (मरा० ३३२२९-२३६)। और देखिए गौतम (२१३१)।
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