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________________ अध्याय १५ कुरुक्षेत्र एवं कुछ अन्य प्रसिद्ध तीर्थ कुरुक्षेत्र कुरुक्षेत्र अम्बाला से २५ मील पूर्व में है । यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद (१०|३३|४) में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध ।' अथर्ववेद (२०।१२७/८ ) में एक कौरव्य पति (सम्भवतः राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है । ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ स्थल कहा गया है। शतपथब्राह्मण (४/१/५/१३ ) में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनो को पहले यज्ञ-भाग से वञ्चित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता ( २।११४, 'देवा वै सत्रमासत कुरुक्षेत्रे ) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ( ५।१।१, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत् ' ) का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋ० (१०/९०/१६) में आया है—'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।' कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया ओर देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म ( यज्ञ, तप आदि ) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपी नामक एक कौरव्य राजा था । तैत्तिरीय ब्राह्मण ( १२८|४|१ ) में आया है कि कुरु पञ्चाल शिशिर - काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है । सरस्वती ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहां वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया (ऐ० ब्रा० ८।१ या २।१९ ) । एक अन्य स्थान पर ऐ० ब्रा० (३५।४ = ७।३०) में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था । ऐ० ब्रा० ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश उशीनरों के देशों के साथ किया है ( ३८०३ = ८/१४ ) | ० आ० (५1१1१ ) में गांथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था। उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्ध्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु ( रेगिस्तान) उत्कर ( कूड़ा वाला गड्ढा ) था । इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्ध्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। आश्वलायन ( १२।६), लाट्यायन (१०।१५) एवं कात्यायन (२४।६।५ ) के श्रौतसूत्र ताण्डय एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्रवण ( जहाँ से सरस्वती निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद, कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कार पचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश । १. देवा वै सत्रमासत । तेवां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत् । तस्यै खाण्डवो दक्षिणाधं आसीत् । तूर्ध्नमुतरार्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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