SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुरुक्षेत्र संबन्धी प्राचीन उल्लेख १३७३ छान्दोग्योपनिषद् (१११०११) में उस उपस्ति चाक्रायण की गाथा आयी है जो कुरु देश में तुषारपात होने से अपनी युवा पत्नी के साथ इभ्य-ग्राम में रहने लगा था और भिक्षाटन करके जीविका चलाता था। निरुक्त (२०१०) ने व्याख्या उपस्थित की है कि ऋ० (१०१९८१५ एवं ७) में उल्लिखित देवापि एवं शन्तनु ऐतिहासिक व्यक्ति थे और कूरु के राजा ऋष्टिषेण के पुत्र थे। पाणिनि (४।१।१५१ एवं ४।१।१७२) ने व्युत्पत्ति की है कि 'कुरु' से 'कौरव्य' बना है। पहले का अर्थ है 'राजा' और दूसरे का 'अपत्य' । महाभारत ने कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में बहुधा उल्लेख किया है। इसमें आया है कि सरस्वती के दक्षिण एवं दृषद्वती के उत्तर की भूमि कुरुक्षेत्र में थी और जो लोग उसमें निवास करते थे मानो स्वर्ग में रहते थे।' वामनपुराण (८६।६) में कुरुक्षेत्र को ब्रह्मावर्त कहा गया है। वामनपुराण के अनुसार सरस्वती एवं दृषद्वती के बीच का देश कुरुजांगल था। किन्तु मनु (२।१७।१८)ने ब्रह्मावर्त को वह देश कहा है जिसे ब्रह्मदेव ने सरस्वती एवं दृषद्वती नामक पवित्र नदियों के मध्य में बनाया था। ब्रह्मषिदेश वह था जो पवित्रता में थोड़ा कम और कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल एवं शूरसेन से मिलकर बना था। इन वचनों से प्रकट होता है कि आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वोत्तम देश था और कुरुक्षेत्र भी बहुत अंशों में इसके समान ही था। हमने यह भी देख लिया है कि ब्राह्मण-काल में अत्यन्त पुनीत नदी सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी और जहाँ यह मरुभूमि में अन्तहित हो गयी थी उसे 'विनशन' कहा जाता था और वह भी एक तीर्थस्थल था। आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा को यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा परशराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पांच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली। कुरु नामक राजा के नाम पर ही 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा है। कुरु ने इन्द्र से वर माँगा था कि वह भूमि, जिसे उसने जोता था, धर्मक्षेत्र कह परीणज्जयनार्यः। मरव उत्करः॥ते. आ० (५।१।१)। क्या 'तून' 'सध्न' का प्राचीन रूप है ? 'जुध्न' या आधुनिक 'सुघ' जो प्राचीन यमुना पर है, थानेश्वर से ४० मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम १० मील पर है। २. दक्षिणेन सरस्वत्या दृषवत्युत्तरेण च । ये वसन्ति कुरुक्षेत्र ते वसन्ति त्रिविष्टपे॥ वनपर्व (८३।३, २०४२०५)। ३. सरस्वतीदृषद्वत्योरन्तरं कुरुजांगलम्। वामन० (२२।४७); सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनघोर्यदन्तरम् । तं देवनिर्मितं वेशं ब्रह्मावतं प्रथमते ॥ कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः ॥एष ब्रह्मर्षिदेशोवै ब्रह्मावर्तादनन्तरः॥ मनु (२।१७ एवं १९) । युग-युग में देशों के विस्तार में अन्तर पड़ता रहा है। पंचाल दक्षिण एवं उत्तर में विभाजित था। बुद्ध-काल में पंचाल की राजधानी कन्नौज थी। शूरसेन देश की राजधानी थी मथुरा। 'अनन्तर' का अर्थ है 'थोड़ा कम या किसी से न तो मध्यम या न भिन्न'। और देखिए नारदीय० (उत्तर, ६४।६)। ४. आयषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदाः स्मृताः । कुरुणा च यतः कृष्टं कुरुक्षेत्र ततः स्मृतम् ॥ वामन० (२२॥ ५९-६०) वामम० (२२॥१८-२०) के अनुसार ब्रह्माको पाँच वेदियां ये हैं--समन्तपञ्चक (उत्तरा),प्रयाग(मध्यमा), गयाशिर (पूर्वा), विरजा (दक्षिणा) एवं पुष्कर (प्रतीची)। 'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है (वामन० २२।२० एवं पा० ४११७७)। विष्णुपुराण (४।१९।७४-७७) के मत से कुरु की वंशावली यों है-'अजमीढ-म-संवरण-कुरु' एवं 'यह धर्मक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं धकार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy