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धर्मशास्त्र का इतिहास
करना चाहिए, इसी प्रकार उसे कनखल एवं दक्षिण मानस में स्नान करना चाहिए ( वायु० ११1९-१०), दक्षिणार्क को प्रणाम करना चाहिए एवं उनकी पूजा करनी चाहिए, मौनार्क को प्रणाम करना चाहिए और तब गदाघर के दक्षिण में स्थित फल्गु में स्नान करके वहाँ तर्पण एवं श्राद्ध करना चाहिए। इसके उपरान्त यात्री को पितामह की पूजा करनी चाहिए (वायु० १११।१९), मदाघर को जाना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए ( वायु० १११।२१) । तब यात्री पंच तीर्थों को जाता है और स्नान करके तर्पण करता है। इसके उपरान्त वह गदाघर की प्रतिमा को पंचामृत से नहलाता है । रघुनन्दन का कथन है कि गदाधर को पंचामृत से नहलाना अनिवार्य है । अन्य कार्य अपनी योग्यता के अनुसार किया जा सकता है। इस प्रकार पंचतीर्थी के कृत्य समाप्त हो जाते हैं ।
पंचतीर्थी के पश्चात अन्य तीर्थों की यात्रा का वर्णन है जिसे हम यहाँ नहीं दुहराएँगे। केवल वायु० के विशिष्ट मन्त्रों की ओर निर्देश मात्र किया जायगा । मतंगवापी में स्नान एवं श्राद्ध करके यात्री को इस से उत्तर मतंगेश को जाना चाहिए और मन्त्रोच्चारण (वायु० १११।२५ ' प्रमाण देवताः सन्तु ') करना चाहिए । ब्रह्मा द्वारा लगाये गये आम्रवृक्ष की जड़ में जल ढारते हुए 'आम्र ब्रह्म-सरोद्भूत....' का पाठ करना चाहिए (वायु० १११।३६) । ब्रह्मा को प्रणाम करने का मन्त्र 'नमो ब्रह्मणे...' ( वायु० १११।३४६ ) है । यम को बलि 'यमराज धर्मराज..' (वायुं० १११।३८) के साथ देनी चाहिए। कुत्तों को वायु ० के १११।३९ एवं कौओं को वायु० १११।४० के मन्त्र के साथ बलि दी जानी चाहिए। पदों के कृत्य के लिए यात्री को रुद्रपद से आरम्भ करना चाहिए और श्राद्ध करके विष्णुपद को जाना चाहिए और वहां पांच उपचारों से 'इदं विष्णुर्विचक्र मे' (ऋ० १।२२।१७ ) मन्त्र के साथ पूजन करना चाहिए, विष्णुपद की वेदी के दक्षिण उसे श्राद्धषोडशी करनी चाहिए ( वायु० ११०/६० ) ।
रघुनन्दन विभिन्न पदों के श्राद्धों पर संक्षेप में लिखा है और कहा है कि पदों का अन्तिम श्राद्ध काश्यपपद पर होता है । गदालोल- तीर्थस्नान के लिए उन्होंने वायु० ( १११।७६) का मन्त्र दिया है। इसके उपरान्त उन्होंने कहा है कि अक्षयवट पर श्राद्ध वट के उत्तर उसके मूल के पास करना चाहिए। अक्षयवट को नमस्कार करने के लिए वायु० के ( १११।८२-८३ ) मन्त्र दिये गये हैं । इसके उपरान्त रघुनन्दन ने गायत्री, सरस्वती, विशाला, मरताश्रम एवं मुण्डपृष्ठ नामक उपतीर्थों के श्राद्धों का उल्लेख किया है। तब उन्होंने व्यवस्था दी है कि यात्री को वायु० (१०५।५४४ 'यासौ वैतरणी नाम...' ) के मन्त्र को कहकर वैतरणी नदी ( भस्मकूट और देवनदी के पास स्थित) को पार करना चाहिए। रघुनन्दन ने गोप्रचार, घृतकुल्या, मघुकुल्या आदि तीर्थों की ओर निर्देश करके कहा है कि यात्री को पाण्डुशिला (जो पितामह के पास चम्पकवन में है) जाकर श्राद्ध करना चाहिए। रघुनन्दन ने टिप्पणी की है कि घृतकुल्या, मधुकुल्या, देविका एवं महानदी नामक नदियाँ एवं धाराएँ ( जब वे शिला से मिलती हैं तो ) मघुस्रवा कही जाती हैं (वायु० ११२।३० ) और वहाँ के तर्पण एवं श्राद्ध से अधिक फल की प्राप्ति होती है। इसके उपरान्त दशाश्वमेध, मतंगपद, मखकुण्ड (उद्यन्त पर्वत के पास ), गयाकूट आदि का उल्लेख हुआ है । रघुनन्दन ने अन्त में व्यवस्था दी है कि यात्री को मस्मकूट पर अपने दाहिने हाथ से जनार्दन के हाथ में दधि से मिश्रित ( किन्तु तिल के साथ नहीं) एक पिण्ड रखना चाहिए और ऐसा करते हुए पाँच श्लोकों (वायु० १०८१८६-९०) का पाठ करना चाहिए। इसके उपरान्त रघुनन्दन ने मातृषोडशी के लिए १६ श्लोक उदघृत किये हैं, जो वायुपुराण में नहीं पाये जाते ।
अब हमें गया क्षेत्र, गया एवं गयाशिर या गयाशीर्ष के अन्तरों को समझना चाहिए। वायु०, अग्नि० एवं नारदीय० के अनुसार गयाक्षेत्र पाँच कोसों एवं गयाशिर एक कोस तक विस्तृत है। *" काशी, प्रयाग आदि जैसे तीर्थों को पंचक्रोश
४६. 'पञ्चकोशं गयाक्षेत्रं क्रोशमेकं गयाशिरः । वायु० ( १०६ / ६५ ) ; अग्नि० ( ११५।४२) एवं नारदीय० ( उत्तर, ४४।१६) ।
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