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गया-श्रावविधि
निबाहने में असमर्थ हो तो उसे कम-से-कम संकल्प करके पिण्डदान करना चाहिए। उसे अपसव्य रूप में जनेऊ धारण कर वायु के श्लोकों (११०।१०-१२ एवं ११०१५९-६०) का पाठ करना चाहिए और अपने सूत्र के अनुसार अन्य कृत्य करने चाहिए, यथा-पिण्ड रखे जाने वाले स्थान पर रेखा खींचना, कुश बिछाना, पिण्डों पर जल छिड़कना, पिण्डदान करना, पुनर्जलसिंचन, श्वासावरोध, परिधान की गाँठ खोलना, एक सूत का अर्पण करना एवं चन्दन लगाना।
इसके उपरान्त यात्री प्रेतशिला से नीचे उतरकर रामतीर्थ में स्नान करता है, जो प्रभासहद के समान है। इसके उपरान्त उसे तर्पण एवं श्राद्ध अपने गृह्यसूत्र के अनुसार करना चाहिए। उसे पिता आदि को १२ पिण्ड, एक अक्षय पिण्ड एवं षोडशीपिण्ड देने चाहिए। यदि ये सभी कर्म न किये जा सके तो एक का सम्पादन पर्याप्त है। इसके उपरान्त 'राम-राम' मन्त्र (वायु० १०८।२०) के साथ संकल्प करके राम को प्रणाम करना चाहिए। जब यात्री यह स्नान, श्राद्ध एवं पिण्डदान करता है तो उसके पितर प्रेत-स्थिति से मुक्ति पा जाते हैं (वायु० १०८।२१)। इसके उपरान्त उसे ज्योतिर्मान् प्रभासेश (शिव) की पूजा करनी चाहिए। राम एवं शिव (प्रभासेश) की पूजा 'आपस्त्वमसि' (वायु. १०८।२२) मन्त्र के साथ की जानी चाहिए। इसके उपरान्त मात की बलि ('यह बलि है, ओम यम आपको नमन है' कहकर) यम को देनी चाहिए। इसके पश्चात् प्रभास पर्वत के दक्षिण नग पर्वत पर 'द्वौ श्वानौ' (वायु० १०८।३०) श्लोक का पाठ करके बलि देनी चाहिए और कहना चाहिए---'यह यमराज एवं धर्मराज को बलि है; नमस्कार'। यह बलि सभी यात्रियों के लिए आवश्यक है। शेष योग्यता के अनुसार किये जा सकते हैं। इस प्रकार गया-प्रवेश के प्रथम दिन के कृत्य समाप्त होते हैं।
गया प्रवेश के दूसरे दिन यात्री को फल्गु में स्नान करना चाहिए, आह्निक तर्पण एवं देवपूजा करनी चाहिए और तब अपराह्न में ब्रह्मकुण्ड (प्रेतपर्वत के मूल के उत्तर-पश्चिम में अवस्थित) में स्नान करना चाहिए। यहाँ पर किया गया श्राद्ध ब्रह्मवेदी पर सम्पादित समझा जाता है (अर्थात जहाँ ब्रह्मा ने अश्वमेघ यज्ञ किया था)। इसके उपरान्त यात्री को दक्षिणाभिमुख होकर 'ये केचित्' (वायु० ११०।६३; तीर्थचि०, पृ० २९७) मन्त्रपाठ के साथ तिलयुक्त यवों को प्रेतपर्वत पर फेंकना चाहिए तथा 'आब्रह्म' (वायु० ११०१६४) के साथ तिलयुक्त जलांजलि देनी चाहिए।"
गयाप्रवेश के तीसरे दिन पंचतीर्थी कृत्य किये जाते हैं, जिनका वर्णन ऊपर हो चुका है। यात्री 'उत्तरे मानसे स्नानम' (वायु० ११०१२-३) मन्त्रपाठ के साथ उत्तर मानस में स्नान करता है। उसे एक अंजलि जल देकर श्राद्ध करना चाहिए (वायु० ११०।२०-२१)। इसके उपरान्त उसे उत्तर मानस में दक्षिण बैठकर, कुशों को (अग्रभाग को दक्षिण करके) बिछाकर, तिल युक्त जल देकर, तिल, कुशों, मधु, दधि एवं जल में यव के आटे को मिलाकर उसका एक पिण्ड देना चाहिए। तब उसे 'नमोस्तु भानवे' (वायु० ११११५) मन्त्र के साथ उत्तर मानस में सूर्य की प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए। इसके उपरान्त यात्री को मौन रूप से दक्षिण मानस को जाना चाहिए और वहाँ उदीचीतीर्थ में स्नान
४३. ब्रह्मकुण्डस्नान का संकल्प यों है-“ओम् अधेत्यादि पित्रादीनां पुनरावृत्तिरहितब्रह्मलोकप्राप्तिकामःप्रेतपर्वते वाढमहं करिष्ये।' तीर्थयात्रातत्त्व (पृ० १३)।
४४. यहाँ यह एक ही बार कह दिया जाता है कि प्रत्येक स्नान के लिए उपयुक्त संकल्प होता है, प्रत्येक स्नान के उपरान्त तर्पण होता है, जिस प्रकार प्रेतशिला पर आवाहन से लेकर देवों को साक्षी बनाने तक श्राद्ध के सभी कृत्य किये जाते हैं, उसी प्रकार सब स्थलों पर श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। अतः अब हम इस बात को बार-बार नहीं दुहरायेंगे, केवल विशिष्ट स्थलों की विशिष्ट व्यवस्थाओं की ओर ही निर्देश किया जायगा।
४५. संकल्प यों है--'ओम् अत्यादि पापक्षयपूर्वक-सूर्यलोकाविसंसिद्धिपितृमुक्तिकाम उत्तरमानसे स्नानमहं करिष्ये।'
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