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गया - संबन्धी प्राचीन उल्लेखों की मीमांसा
न ऐण्टीक्वेरी, जिल्द १६, पृ० ६३ ) | श्लोक का अनुवाद यों है- 'उस बुद्धिमान् ( राजकुमार यक्षपाल) ने मौनादित्य एवं अन्य देवों (इसमें उल्लिखित) की प्रतिमाओं के लिए एक मन्दिर बनवाया, उसने उत्तर मानससर बनवाया और अक्षय (वट) के पास एक सत्र ( भोजन-व्यवस्था के दान) की योजना की ।' नयपाल के राज्यकाल का यह शिलालेख लगभग १०४० ई० में उत्कीर्ण हुआ । डा० बरुआ का कथन है कि उत्तरमानस तालाब उसी समय खोदा गया, और वह १०४० ई० से प्राचीन नहीं हो सकता, अतः यह तथा अन्य तीर्थं पश्चात्कालीन हैं तथा गयामाहात्म्य, जिसमें उत्तर मानस की चर्चा है, ११वीं शताब्दी के पश्चात् लिखित हुआ है । किन्तु डा० बरुआ का यह निष्कर्ष अति दोषपूर्ण है। यदि तालाब शिलालेख के समय पहली बार खोदा गया था तो इसे ख्यात (प्रसिद्ध ) कहना असम्भव है । खोदे जाने की कई शताब्दियों के उपरान्त ही तालाब प्रसिद्ध हो सकता है । उत्तरमानस तालाब वायु० (७७।१०८, और यह श्लोक कल्पतरु द्वारा १११० ई० में उद्धृत किया गया है), पुनः वायु० (८२/२१ ) एवं अग्नि० ( ११५।१०) में afa है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर मानस ८वीं या ९वीं शताब्दी में प्रख्यात था । केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यह तालाब मिट्टी से भर गया था अतः यह पुनः सन् १०४० के लगभग खोदा गया या लम्बा-चौड़ा बनाया गया। इसका कोई अन्य तात्पर्य नहीं है ।
ऐसा कहा जा सकता है कि गयामाहात्म्य (वायु०, अध्याय १०५-११२ ) जो सम्भवतः वायुपुराण के बाद का है, १३वीं या १४वीं शताब्दी का नहीं है अर्थात् कुछ पुराना है । कई पुराणों एवं ग्रन्थों से सामग्रियाँ इसमें संगृहीत की गयी हैं, यथा वनपर्व, अनुशासनपर्व, पद्म० (१।३८), नारदीय० ( उत्तर, अध्याय ४४-४७) आदि । इसके बहुतसे श्लोक बार-बार दुहराये गये हैं । डा० बरुआ ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि वायु० (८२।२०- २४ ) में गया के बहुत से उपतीर्थों का उल्लेख हुआ है । यथा -- ब्रह्मकूप, प्रभास, प्रेतपर्वत, उत्तर मानस, उदीची, कनखल, दक्षिण मानस, धर्मारण्य, गदाधर, मतंग। अध्याय ७०।९७-१०८ में ये नाम आये हैं - गृध्रकूट, भरत का आश्रम, मतंगपद, मुण्डपृष्ठ एवं उत्तर मानस । गयामाहात्म्य के बहुत से श्लोक स्मृतिचन्द्रिका ( लगभग ११५० - १२२५) द्वारा श्राद्ध एवं आशौच के विषय में उद्धृत हैं। बहुत-सी बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गयामाहात्म्य ७वीं एवं १०वीं शताब्दी के बीच कभी प्रणीत हुआ होगा ।
अब हमें यह देखना है कि महाभारत के अन्य भागों एवं स्मृतियों में गया का वर्णन किस प्रकार हुआ है । वनपर्व के अध्याय ८७ एवं ९५ में इसकी ओर संकेत है । ऐसा आया है कि पूर्व की ओर ( काम्यक वन से, जहाँ पर पाण्डव लोग कुछ समय तक रहे थे ) बढ़ते हुए यात्री नैमिष वन एवं गोमती के पास पहुँचेंगे। तब कहा गया है कि गा नामक पवित्र पर्वत है, ब्रह्मकूप नामक तालाब है । इसके उपरान्त वह प्रसिद्ध श्लोक है, जिसका अर्थ है कि 'व्यक्ति को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए और यदि उनमें एक भी गया जाता है या अश्वमेध करता है या नील वृष छोड़ता है तो पितर लोग तृप्त हो जाते हैं (वनपर्व ८७।१०-१२ ) । इसके उपरान्त वनपर्व (अ० ८७) ने पवित्र
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५. मौनादित्यसहस्रलिंगकमलार्धाङ्गीणनारायण, -- द्विसोमेश्वरफल्गुनाथ विजयादित्याह्वयानां कृती ।
स प्रासादमचीकरद् दिविषदां केदारदेवस्य च ख्यातस्योत्तरमानसस्य खननं सत्रं तथा चाक्षये ॥
६. एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोपि गयां व्रजेत् । यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ॥ महानदी च तत्रैव तथा गयशिरो नृप । यत्रासौ कोत्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वटः । यत्र दत्तं पितृभ्योनमक्षय्यं भवति प्रभो। सा च पुण्यजला तत्र फल्गुनामा महानदी । वनपर्व (८७।१०-१२ ) ; राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमद्युते । नगो गयशिरो यत्र पुण्या चैव महानदी ॥... ऋषियज्ञेन महता यत्राक्षयवटो महान् । अक्षये देवयजने अक्षयं यत्र वै फलम् । वनपर्व ( ९५।९-१४) ।
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