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________________ १३५४ धर्मशास्त्र का इतिहास (स्थाणुतीर्थ), नर्मदा, प्रभास एवं अन्य तीर्थों का विवेचन हुआ है। अगले अध्याय ८३ में कुरुक्षेत्र का विस्तृत वर्णन है। वनपर्व (८४१८२-१०३) के महत्त्वपूर्ण श्लोकों की व्याख्या के पूर्व गया के विषय में कहे जानेवाले श्लोकों में जो कुछ आया है उसका वर्णन अनिवार्य है। डा० बरुआ तथा अन्य लोगों ने अध्याय ८४ तथा आगे के अध्यायों के श्लोकों की व्याख्या सावधानी से नहीं की है। वनपर्व (८४१९८१) में धौम्य द्वारा ५७ तीर्थों (यथा नैमिष, शाकम्भरी, गंगाद्वार, कनखल, गंगा-यमुना-संगम, कुब्जाम्रक आदि) के नाम गिनाकर गया के तीर्थों के विषय में विवेचन उपस्थित किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रस्तुतलेखक को अन्य तीर्थों के विषय में अधिक वर्णन करना अभीष्ट नहीं था, इसी से उसने कुछ तीर्थों का वर्णन आगे दो बार किया है। पद्मपुराण (आदि, ३८।२-१९) ने वनपर्व को ज्यों-का-त्यों उतारा है, लगता है, एक-दूसरे ने दोनों को उद्धृत किया है। वनपर्व में नैमिष का वर्णन दो स्थानों पर (यथा ८४१५९-६४ एवं ८७६-७) हुआ है और गया का भी (यथा ८५।८२-१०३ एवं ८७।८-१२) दो बार हुआ है। गया के तीर्थों के नाम जिस ढंग से लिये गये हैं और उनका वर्णन जिस ढंग से किया गया है उससे यह नहीं कहा जा सकता कि वनपर्व गया और उससे सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में विशद वर्णन करना चाहता था। यह निष्कर्ष इस बात से और शक्तिशाली हो उठता है कि अनुशासनपर्व में तीन तीर्थों का जो उल्लेख हुआ है वह वनपर्व (८४१८२-१०३) में नहीं पाया जाता, यथा--ब्रह्महत्या करने वाला व्यक्ति गया में अश्मप्रस्थ (प्रेतशिला), निरविन्द की पहाड़ी एवं कौंचपदी पर विशुद्ध हो जाता है (अनुशासन० २५।४२) । ये तीनों तीर्थ वनपर्व में नहीं आते। वायु० (१०९।१५) में अरविन्दक को शिलापर्वत का शिखर कहा गया है, और नारदीय० ने क्रौंचपद (मुण्ड-प्रस्थ) की चर्चा की है। स्पष्ट है कि गयामाहात्म्य में उल्लिखित इन तीन तीर्थों का नाम अनुशासनपर्व में भी आया है। यह चिन्ता की बात है कि डा० बरुआ ने गया की प्राचीनता के विषय में केवल वनपर्व (अध्याय ८४ एवं ९५), अग्निपुराण (अध्याय ११४-११६) एवं वायुपुराण (अध्याय १०५-१११) का ही सहारा लिया, उन्होंने अन्य पुराणों को नहीं देखा और उन्होंने यह भी नहीं देखा कि और्णवाभ द्वारा व्याख्यात विष्णु के तीन पद संभवतः गया के तीर्थों की ओर संकेत करते हैं। पद्म० (आदि, ३८।२-२१), गरुड़ (१, अध्याय ८२-८६), नारदीय० (उत्तर, अध्याय ४४-४७) आदि में गया के विषय में बहुत-कुछ कहा गया है और उनके बहुत से श्लोक एक-से हैं। महाभारत (वन० ८२६८१) का 'सावित्र्यास्तु पदं' पद्म० (आदि, ३८।१३) में 'सावित्र पदं' आया है जिसका अर्थ विष्णु (सवितृ) का पद हो सकता है। तो ऐसा कहना कि वनपर्व में प्रतिमा -संकेत नहीं मिलता, डा० बरुआ के भ्रामक विवेचन का द्योतक है। गया में धर्म की प्रतिमा भी थी, क्योंकि वनपर्व में आया है कि यात्री धर्म का स्पर्श करते थे (धर्म तत्राभिसंस्पृश्य)। इसके अतिरिक्त बछड़े के साथ 'गोपद' एवं 'सावित्र पद' की ओर भी संकेत मिलता है। इन उदाहरणों से सूचित होता है कि वनपर्व में प्रतिमा-पूजन की ओर संकेत विद्यमान हैं। फाहियान (३९९-४१३ ई०) ने लिखा है कि उसके समय में हिन्दू धर्म का नगर गया समाप्त प्राय था। यह सम्भव है कि चौथी शताब्दी के पूर्व भूकम्प के कारण गया नगर के मन्दिर आदि नष्ट-भ्रष्ट हो चुके होंगे। प्राचीन पालि ग्रन्थों एवं ललितविस्तर में गया के मन्दिरों का उल्लेख है। गया कई अवस्थाओं से गुजरा है। ईसा की कई शताब्दियों पूर्व यह एक समृद्धिशाली नगर था। ईसा के उपरान्त चौथी शताब्दी में यह नष्ट प्राय था। किन्तु सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने इसे भरा-पूरा लिखा है जहाँ ब्राह्मणों के १० कूल थे। आगे चलकर जब बौद्ध धर्म की अवनति हो गयी तो इसके अन्तर्गत बौद्ध अवशेषों की भी पा लगी। वायपुराण में वर्णन आया है कि गया प्रेतशिला से महाबोधि वक्ष तक विस्तत है (लगभग १३ मील)। डॉ० बरुआ ने डॉ० कीलहान द्वारा सम्पादित शिलालेख के १२वें श्लोक का अर्थ ठीक से नहीं किया है (इण्डि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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