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________________ १३५६ धर्मशास्त्र का इतिहास नदी फल्गु (महानदी), गयशिरस्, अक्षयवट का उल्लेख किया है, जहाँ पितरों को दिया गया भोजन अक्षय हो जाता है । वनपर्व (अध्याय ९५) में ब्रह्मसर (जहाँ अगस्त्य धर्मराज अर्थात् यम के पास गये थे, श्लोक १२ ), और अक्षयवट (श्लोक १४) का उल्लेख है। इसमें आया है कि अमूर्तरय के पुत्र राजा गय ने एक यज्ञ किया था, जिसमें भोजन एवं दक्षिणा पर्याप्त रूप में दी गया थी । वसिष्ठधर्मसूत्र ( १११।४२ ) में आया है कि जब व्यक्ति गया जाता है और पितरों को भोजन देता है तो वे उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं जिस प्रकार अच्छी वर्षा होने से कृषकगण प्रसन्न होते हैं, और ऐसे पुत्र से पितृगण, सचमुच, पुत्रवान् हो जाते हैं । विष्णुधर्मसूत्र ( ८५०६५-६७ ) ने श्राद्ध योग्य जिन ५५ तीर्थो के नाम दिये हैं, उनमें गया-सम्बन्धी तीर्थ हैं--गयाशीर्ष, अक्षयवट, फल्गु, उत्तर मानस, मतंग-वापी, विष्णुपद । याज्ञ० (११२६१ ) में आया है कि गया में व्यक्ति जो कुछ दान करता है उससे अक्षय फल मिलता है। अत्रि स्मृति ( ५५-५८) में पितरों के लिए गया जाना, फल्गु-स्नान करना पितृतर्पण करना, गया में गदाधर (विष्णु) एवं गयाशीर्ष का दर्शन करना वर्णित है। शंख ( १४।२७-२८ ) ने भी गयातीर्थ में किये गये श्राद्ध से उत्पन्न अक्षय फल का उल्लेख किया है । लिखितस्मृति ( १२-१३ ) ने गया की महत्ता के विषय में यह लिखा है-- चाहे जिसके नाम से, चाहे अपने लिए या किसी के लिए गया - शीर्ष में पिण्डदान किया जाय तब व्यक्ति नरक में रहता हो तो स्वर्ग जाता है और स्वर्ग वाला मोक्ष पाता है। और देखिए अग्निपुराण ( ११५४६-४७ ) । कूर्म ० में आया है कि कई पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए जिससे कि यदि उनमें कोई किसी कार्यवश गया जाय और श्राद्ध करे तो वह अपने पितरों की रक्षा करता है और स्वयं परमपद पाता है। कल्पतरु (तीर्थ, पृ० १६३ ) द्वारा उद्धृत मत्स्य ० ( २२/४ - ६ ) में आया कि गया पितृतीर्थ है, सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है और वहाँ ब्रह्मा रहते हैं । मत्स्य० में 'एष्टव्या बहवः पुत्र नामक श्लोक आया है। ' यामाहात्म्य (वायुपुराण, अध्याय १०५-११२) में लगभग ५६० श्लोक हैं। यहाँ हम संक्षेप में उसका निष्कर्ष देंगे और कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोकों को उद्धृत भी करेंगे। अध्याय १०५ में सामान्य बातें हैं और उसमें आगे के अध्यायों के मुख्य विषयों की ओर संकेत है। इसमें आया है कि श्वेतवाराहकल्प में गय ने यज्ञ किया और उसी के नाम पर गया का नामकरण हुआ। पितर लोग पुत्रों की अभिलाषा रखते हैं, क्योंकि वह पुत्र जो गया जाता है वह पितरों को नरक जाने से बचाता है। गया में व्यक्ति को अपने पिता तथा अन्यों को पिण्ड देना चाहिए, वह अपने को भी बिना और देखिए एष्टव्या. नामक श्लोक के लिए विष्णुत्र मंसूत्र ( ८५० अन्तिम श्लोक ), मत्स्य० (२२/६), वायु० ( १०५/१० ), कूर्म० (२।३५०१२), पद्म० ( ११३८ । १७ एवं ५।११।६२) तथा नारदीय० ( उत्तर ४४।५-६ ) । ७. यह ज्ञातव्य है कि रामायण ( १|३२|७ ) के अनुसार धर्मारण्य को संस्थापना ब्रह्मा के पौत्र, कुश के पुत्र असूर्तर (या अमूर्त रय) द्वारा हुई थी । ८. यह कुछ आश्चर्यजनक है कि डॉ० बरुआ ( गया एवं बुद्धगया, जिल्द १, पृ० ६६) ने शंख के श्लोक 'तीर्थे वामरकण्टके' में 'वामरकण्टक' तीर्थ पढ़ा है न कि 'वा' को पृथक् कर 'अमरकण्टक' ! ९. वायु० ( १०५।७-८ ) एवं अग्नि० ( ११४१४१ ) - - ' गयोपि चाकरोद्यागं बह्वनं बहुदक्षिणम् । गयापुरी तेन नाम्ना०, त्रिस्थलोसेतु ( पृ० ३४०-३४१) में यह पद्य उद्धृत है। १०. यहीं पर "एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोपि गयां व्रजेत् । उत्सृजेत् " ( वायु० १०५।१०) नामक श्लोक आया है । त्रिस्थली० ( पृ० ३१९ ) ने एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें योग्य पुत्र की परिभाषा दी हुई है--' जीवतो वाक्यकरणात्... • त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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