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अध्याय १४
गया
आधुनिक काल में भी सभी धार्मिक हिन्दुओं की दृष्टि में गया का विलक्षण महत्त्व है। इसके इतिहास प्राचीनता, पुरातत्त्व सम्बन्धी अवशेषों, इसके चतुर्दिक् के पवित्र स्थलों, इसमें किये जानेवाले श्राद्ध कर्मों तथा गयावालों के विषय में सैकड़ों पृष्ठ लिखे जा चुके हैं। यहाँ हम इन सभी बातों पर प्रकाश नहीं डाल सकते । लगभग सौ वर्षों के मी बहुत-सी बातें लिखी गयी हैं और कई मतों का उद्घोष किया गया है । जो लोग गया की प्राचीनता एवं इसके इतिहास की जानकारी करना चाहते हैं उन्हें निम्न ग्रन्थ एवं लेख पढ़ने चाहिए - डा० राजेन्द्रलाल मित्र का ग्रन्थ 'बुद्ध गया' (१८७८ ई० ) ; जनरल कनिंघम का 'महाबोधि' (१८९२ ) ; ओ' मैली के गया गजेटियर के गया श्राद्ध एवं गयावाल नामक अध्याय; पी० सी० राय चौधरी द्वारा सम्पादित गया गजेटियर का नवीन संस्करण (१९५७ ई० ) ; इण्डियन ऍण्टीक्वेरी ( जिल्द १०, पृ० ३३९ - ३४०, जिसमें बुद्धगया के चीनी अभिलेख, सन् १०३३ ई० का तथा गया के अन्य अभिलेखों का, जिनमें बुद्ध-परिनिर्वाण के १८१३ वर्षों के उपरान्त का एक अभिलेख भी है जो विष्णुपद के पास 'दक्षिण मानस' कुण्ड के सूर्यमन्दिर में उत्कीर्ण है, वर्णन है ) ; इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द १६, पृ० ६३), जहाँ विश्वादित्य के पुत्र यक्षपाल के उस लेख का वर्णन है जिसमें पालराज नयपाल देव ( मृत्यु, सन् १०४५ ई०) द्वारा निर्माण किये गये मन्दिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं का उल्लेख है; डा० वेणीमाधव बरुआ का दो भागों में 'गया एवं बुद्धगया' ग्रन्थ; जे० बी० ओ० आर० एस० (जिल्द २४, १९३८ ई०, पृ० ८९ - १११ ) । मध्य काल के निबन्धों के लिए देखिए कल्पतरु ( तीर्थ, पृ० १६३ - १७४), तीर्थ- चिन्तामणि ( पृ० २६८-३२८), त्रिस्थलीसेतु ( पृ० ३१६-३७९), तीर्थप्रकाश ( पृ० ३८४ - ४५२), तीर्थेन्दुशेखर ( पृ० ५४ - ५९ ) तथा त्रिस्थलीसेतु-सारसंग्रह (पृ० ३६-३८)।
गया के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है गया - माहात्म्य (वायुपुराण, अध्याय १०५-११२) । विद्वानों ने गयामाहात्म्य के अध्यायों की प्राचीनता पर सन्देह प्रकट किया है। राजेन्द्रलाल मित्र ने इसे तीसरी या चौथी शताब्दी में प्रणीत माना है। ओ' मैली ने गयासुर की गाथा का आविष्कार १४वीं या १५वीं शताब्दी का माना है, क्योंकि उनके मत से गयावाल वैष्णव हैं, जो मध्वाचार्य द्वारा स्थापित सम्प्रदाय के समर्थक हैं और हरि नरसिंहपुर के महन्त को अपना गुरु मानते हैं (जे० ए० एस० बी०, १९०३) । किन्तु यह मत असंगत है। वास्तव में गयावाल लोग आलसी, भोगासक्त एवं अज्ञानी हैं और उनकी जाति अब मरणोन्मुख है । ओ' मैली ने लिखा है कि प्रारम्भ में गयावालों के
१. मध्वाचार्य के जन्म-मरण की तिथियों के विषय में मतैक्य नहीं है। जन्म एवं मरण के विषय में 'उत्तरादिमठ' ने क्रम से शक संवत् १०४० (सन् १९१८ ई० ) एवं ११२० (११९८ ई०) को तिथियाँ दी हैं । किन्तु इन तिथियों द्वारा मध्व के ग्रन्थ महाभारततात्पर्यनिर्णय की तिथि से मतभेद पड़ता है, क्योंकि वहाँ जन्मतिथि गतकलि ४३०० है | अन्नमलाई विश्वविद्यालय की पत्रिका ( जिल्द ३, १९३४ ई०) के प्रकाशित लेख में ठीक तिथि सन् १२३८ - १३१७६० है ।
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