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________________ १३५० धर्मशास्त्र का इतिहास चन्द्र ने बनारस में कपालमोचन घाट पर (जहाँ गंगा उत्तर की ओर बहती हैं) स्नान करके व्यास नामक ब्राह्मण को एक ग्राम दान के रूप में दिया था। इस घाट के विषय में मत्स्य० (१८३।८४-१०३) एवं काशीखण्ड (३३।११६) में गाथा आयी है। यह ज्ञातव्य है कि लिंग० (पूर्वार्ध, ९२।६७-१००), पद्म० (आदि, अध्याय ३४-३७), कूर्म० (१॥३२॥ १-१२ एवं ११३५।१-१५, तीर्थ) एवं काशी० (१०।८६-९७, अध्याय ३३, ५३१२७ एवं अध्याय ५५, ५८ तथा ६१) में काशी के बहुत-से लिंगों एवं तीर्थों का उल्लेख हुआ है। काशी० (७३।३२-३६) में निम्न १४ नाम हैं, जो महा लिंग के नाम से प्रसिद्ध थे--ओंकार, त्रिलोचन, महादेव, कृत्तिवास, रत्नेश्वर, चन्द्रेश्वर, केदार, धर्मेश्वर, वीरेश्वर, कामेश्वर, विश्वकर्मेश्वर, मणिकर्णीश, अविमुक्त एवं विश्वेश्वर। काशी० (७३।३९) में ऐसा आया है कि इन महालिंगों की यात्रा मास की प्रतिपदा से आरम्भ की जानी चाहिए। काशी० (७३।४५-४८) में पुनः १४ लिंगों के नाम आये हैं जो विभिन्न हैं। काशी० (७३।६०-६२) में १४ आयतनों का वर्णन आया है। इनमें १२ को लिंग० (१०९२।६७-१०७) ने लिंगों के रूप में परिगणित किया है। काशी० (अध्याय ८३ एवं ८४) ने काशी के १२५ तीर्थों का उल्लेख किया है। इसके अध्याय ९४ (श्लोक ३६) में ३६ मौलिक लिंगों (१४ ओंकारादि, ८ देवेश्वरादि एवं १४ शैलेशादि) की ओर संकेत हुआ है। किन्तु इनमें विश्वेश्वर तुरत फल देनेवाले कहे गये हैं। __ ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि काशी में रहते हुए प्रति दिन गंगा की ओर जाना चाहिए, मणिकर्णिका में स्नान करना चाहिए और विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। जब कोई काशी के बाहर पाप करके काशी आता है और यहाँ मर जाता है या कोई काशीवासी काशी में पाप करता है और यहीं या अन्यत्र मर जाता है तो क्या होता है ? त्रिस्थलीसेतु (पृ० २६८) ने काशीखण्ड (७५।२२), पद्म० एवं ब्रह्मवैवर्त से उद्धरण देकर निम्न निष्कर्ष निकाले हैं। जो काशी में रहकर पापकर्मी होते हैं, वे ४० सहस्र वर्षों तक पिशाच रहते हैं, पुनः काशी में रहते हुए परम ज्ञान प्राप्त करते हैं और तब मोक्ष पाते हैं। जो काशी में रहकर पाप करते हैं, वे यम की यातनाएँ नहीं सहते, चाहे वे काशी में मरें या अन्यत्र। जो काशी में पाप कर यहीं मर जाते हैं वे कालभैरव द्वारा दण्डित होते हैं। जो काशी में पाप करके अन्यत्र मरते हैं वे यम नामक शिव के गणों द्वारा पीड़ित होते हैं, उसके उपरान्त ३० सहस्र वर्षों तक कालभैरव द्वारा पीड़ित होते हैं, पुनः मनुष्य रूप में जन्म लेते हैं तब काशी में मरते हैं और अन्त में संसार से मुक्ति पाते हैं। यह ज्ञातव्य है कि काशीखण्ड (५८७१-७२) के मत से काशी से कुछ दूर उत्तर विष्णु ने धर्मक्षेत्र नामक स्थान में अपना निवास बनाया और वहाँ सौगत (बुद्ध) का अवतार लिया। यह सारनाथ नामक स्थान की ओर संकेत है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर है और जहाँ बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश किया था। सामान्य नियम यह है कि संन्यासी लोग ८ मासों तक इधर-उधर घूमते हैं और वर्षा के चार या दो मास एक स्थान पर व्यतीत कर सकते हैं, किन्तु जब वे काशी में प्रवेश करते हैं तो यह नियम ट जाता है। यह भी कहा गया है कि उन्हें काशी का सर्वथा त्याग नहीं करना चाहिए (मत्स्य०१८४।३२-३४; कल्पतरु, तीर्थ, पृ० २४)। काशी के नाम के साथ विद्या की महान् परम्पराएँ लगी हुई हैं, जिनका उल्लेख इस ग्रन्थ के क्षेत्र के बाहर है। इतना ही कहना पर्याप्त है कि बनारस एवं कश्मीर अलबरूनी के काल में हिन्दु विज्ञानों की उत्तम पाठशालाओं के लिए प्रसिद्ध थे (जिल्द १, पृ० १७३)। आइने अकबरी (जिल्द २, पृ० १५८) में आया है कि बनारस पुरातन काल से हिन्दुस्तान में विद्या का प्रथम पीठ रहा है। काशीखण्ड (९६।१२१) में आया है कि यह विद्या का सदन है (विद्यानां सदनं काशी)। बनारस के ज्ञानसंपन्न कूलों की जानकारी के लिए देखिए डा० अलतेकर की हिस्ट्री आव बनारस (पृ० २३-२४) एवं इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द ४१, पृ०७-१३ एवं २४५-२५३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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