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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास १३५२ डा० बरुआ १४८४ कुल थे, बुचनन हैमिल्टन के काल में वे लगभग १००० थे, सन् १८९३ में उनकी संख्या १२८ रह गयी, १९०१ की जनगणना में शुद्ध गयावालों की संख्या १६८ और स्त्रियों की १५३ थी। गया वैष्णव तीर्थ है, यदि गयावाल मध्य काल के किसी आचार्य को अपना गुरु मानें तो वे आचार्य, स्वभावतः, वैष्णव आचार्य मध्व होंगे न कि शंकर । व्याख्या करके यह प्रतिष्ठापित किया है कि गया-माहात्म्य १३वीं या १४वीं शताब्दी के पूर्व का लिखा हुआ नहीं हो सकता । यहाँ हम सभी तर्कों पर प्रकाश नहीं डाल सकते । डा० बरुआ का निष्कर्ष दो कारणों से असंगत ठहर जाता है । वे सन्देहात्मक एवं अप्रामाणिक तर्क पर अपना मत आधारित करते हैं । वे वनपर्व में पाये जानेवाले वृत्तान्त की जाँच करते हैं और उसकी तुलना गयामाहात्म्य के अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण वृतान्त से करके निम्न निष्कर्ष निकालते हैं - 'महाभारत में वर्णित गया प्रमुखतः धर्मराज यम, ब्रह्मा एवं शिव शूली का तीर्थस्थल है, और विष्णु एवं वैष्णववाद नाम या भावना के रूप में इससे सम्बन्धित नहीं हो सकते। ब्रह्मयूप, शिवलिंग एवं वृषभ के अतिरिक्त यहां किसी अन्य मूर्ति या मन्दिर के निर्माण की ओर संकेत नहीं मिलता।' इस निष्कर्ष के लिए हमें महाभारत एवं अन्य संस्कृ ग्रन्थों का अवगाहन करके गयामाहात्म्य से तुलना करनी होगी। दूसरी बात जो डा० बरुआ के मत की असंगति प्रकट करती है, यह है कि उन्होंने कीलहार्न द्वारा सम्पादित अभिलेख के १२वें श्लोक की व्याख्या भ्रामक रूप में की है (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द १६ में वह अभिलेख वर्णित है ) । अब हम 'गया' नाम एवं उसके या अन्य समान नामों के लिए अन्य संकेतों की, जो ऋग्वेद से आगे के ग्रन्थों में आये हैं, चर्चा करेंगे। ऋ० (१०।६३ एवं १०/६४) के दो सूक्तों के रचयिता थे प्लति के पुत्र गय । ऋ० (१०।६३।१७ एवं १०।६४।१७) में आया है 'अस्तावि जनो दिव्यो गयेन' (देवी पुरोहित गय द्वारा प्रशंसित हुए) । स्पष्ट है, ये ऋग्वेद के एक ऋषि हैं। ऋग्वेद में 'गय' शब्द अ य अर्थों में भी आया है जिनका यहाँ उल्लेख असंगत है । अथर्ववेद (१।१४) ४) में असित एवं कश्यप के साथ गय नामक एक व्यक्ति जादूगर या ऐन्द्रजालिक के रूप में वर्णित है। वैदिक संहिताओं में असुरों, दासों एवं राक्षसों को जादू एवं इन्द्रजाल में पारंगत कहा गया है (ऋ० ७१९९४, ७।१०४।२४-२५ एवं अथर्ववेद ४।२३।५ ) । ऐसी कल्पना कठिन नहीं है कि 'गय' आगे चलकर 'गयासुर' में परिवर्तित हो गया हो । निरुक्त ( १२।१९ ) ने 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्' (ऋ० १।२२।१७ ) की व्याख्या करते हुए दो विश्लेषण दिये हैं, जिनमें एक प्राकृतिक रूप की ओर तथा दूसरा भौगोलिक या किंवदन्तीपूर्ण मतों की ओर संकेत करता है - 'वह (विष्णु) अपने पदों को तीन ढंगों से रखता है।' शाकपूणि के मत से विष्णु अपने पद को पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग में रखते हैं, और्णवाभ के मत से समारोहण, विष्णुपद एवं गय- शीर्ष पर रखते हैं। वैदिक उक्ति का तात्पर्य चाहे जो हो, किन्तु यह स्पष्ट है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व इसके दो विश्लेषण उपस्थित हो चुके थे, और यदि बुद्ध के निर्माण की तिथियाँ ठीक मान ली जायें तो यह कहना युक्तिसंगत है कि और्णताभ एवं यास्क बुद्ध के पूर्व हुए थे । देखिए सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट (जिल्द १३, पृ० २२-२३, जहाँ सिंहली गाथा के अनुसार बुद्ध की निर्वाणतिथि ई० पू० ४८३ मानी गयी है और पश्चिमी लेखकों के मत से ई० पू० ४२९-४०० ) । गयशीर्ष का नाम वनपर्व (८७| २. त्रेधा निधत्ते पदम् । पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः । समारोह विष्णुपदे गयशिरसि - - इति और्णवाभ: । निरुक्त (१२।१९ ) । ३. अधिकांश संस्कृत विद्वान् निरुक्त को कम-से-कम ई० पू० पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं । और्णवाभ निरुक्त के पूर्वकालीन हैं। (विटरनित्ज का हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, भाग १, पृ० ६९, अंग्रेजी संस्करण) । गयाशीर्ष के वास्तविक स्थल एवं विस्तार के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। देखिए डा० राजेन्द्रलाल मित्र कृत 'बुद्ध - गया' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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