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________________ काशी की प्राचीनता के उल्लेख १३४१ है कि उस समय यह नगर आर्यों की संस्कृति की लीलाओं का केन्द्र बन चुका था। कतिपय जातक गाथाओं में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख हुआ है। जातक की गाथाएँ ई० पू० तीसरी शताब्दी के पूर्व नहीं रखी जा सकतीं, किन्तु इतना तो स्वोकार किया ही जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व वाराणसी ब्रह्मदत्त राजाओं की राजधानी थी ही। मत्स्य० (२७३।७२-७३) ने एक ही प्रकार की उपाधियों वाले सैकड़ों राजाओं का उल्लेख किया है और कहा है कि १०० ब्रह्मदत्त और १०० काशि एवं कुश थे। किन्तु यहाँ ब्रह्मदत्तों को काशियों से पृथक् कहा गया है, अतः इस गाथा का महत्व कम हो गया है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में भी वाराणसी एवं काशी का उल्लेख हुआ है। कल्पसूत्र में ऐसा आया है कि अर्हत् पार्श्वनाथ का जन्म चैत्र के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में हुआ था और जब महावीर की मृत्यु हुई तो काशि एवं कोसल के १८ संयुक्त राजाओं ने लिच्छवियों एवं मल्लकों के अन्य राजाओं के साथ अमामासी के दिन प्रकाश किया था (सैकेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द २२, पृ० २७१ एवं २६६)। अश्वघोष ने अपने वुद्धचरित (१५।१०१) में वाराणसी एवं काशी को एक-सा कहा है --'जिन (बुद्ध) ने वाराणसी में प्रवेश करके और अपने प्रकाश से नगर को देदीप्यमान करते हुए काशी के निवासियों के मन में कौतुक भर दिया।" बुद्धचरित में आगे कहा है कि बुद्ध वणारा के पास एक वृक्ष की छाया में पहुँचे (वही, जिल्द ४९, भाग १, पृ० १६९)। सम्भवतः वणारा वरणा ही है। इससे प्रकट होता है कि कम-से-कम पहली शताब्दी में वाराणसी एवं काशी समानार्थक थीं। वायु० (४५॥ ११०) में काशि-कोशल मध्यदेश के प्रदेशों में परिगणित है। विष्णपुराण में पौण्डक वासुदेव की गाथा आयी है, जिसने कृष्ण को ललकारा था और उनसे चक्र एवं अन्य चिह्नों को समर्पित करने को कहा था। उसे काशी के राजा ने सहायता दी थी। पौण्डक एवं काशिराज की सम्मिलित सेना ने कृष्ण पर आक्रमण किया। कृष्ण ने पौण्ड्रक को मार डाला और काशिराज का सिर अपने चक्र से काट डाला जो काशी नगर में जाकर गिरा। उसके पुत्र ने तप किया और शंकर को प्रसन्न करके उनसे 'कृत्या' प्राप्त की जो वाराणसी में प्रविष्ट हुई। कृष्ण के चक्र ने उसकी खोज में सम्पूर्ण वाराणसी को उसके राजा, नौकरों एवं निवासियों के साथ जला डाला। विष्णुपुराण (५।३४) के इस वर्णन में काशी, वाराणसी एवं अविमक्त एक-दूसरे के पर्याय हैं (श्लोक १४, २१, २५, ३० एवं ३९)। ये ही श्लोक उन्हीं शब्दों में ब्रह्म (अध्याय २०७) में आये हैं। यही गाथा संक्षेप में सभापर्व (१४।१८-२० एवं ३४।११) में भी वर्णित है।। उपर्यक्त गाथाओं से, जो महाभारत एवं पुराणों में काशी एवं महादेव के विषय में दी गयी है, विद्वानों ने कतिपय निष्कर्ष निकाले हैं, यथा-महादेव अनार्यों के देवता थे, आर्यों के आगमन के उपरान्त बहुत काल तक वाराणसी अनार्यों का पूजा-कन्द्र थी, और वाराणसी के लोग, जो अन्ततोगत्वा आर्यधर्मावलम्बी हो गये, उपनिषत्-काल की दार्शनिक विचारधाराओं से विशेष अभिरुचि रखते थे। इन निष्कर्षों में अधिकांश संशयात्मक हैं, क्योंकि इनके लिए ३. शतमेकं धार्तराष्ट्रा ह्यशोतिर्जनमेजयाः। शतं वै ब्रह्मदत्तानां वीराणां कुरवः शतम् । ततः शतं च पञ्चालाः शतं काशिकुशादयः ।। मत्स्य० (२७३।७२-७३)। ४. वाराणसो प्रविश्याय भासा सम्भासञ्जिनः। चकार काशीदेशीयान् कौतुकाक्रान्तचेतसः॥ बुद्धचरित (१५३१०१)। ५. देखिए स्व० डा० अनन्त सदाशिव अलतेकर कृत 'हिस्ट्री आव बनारस' (पृ० २-७)। नारदीयपुराण (उत्तर, अध्याय २९) में आया है कि सर्वप्रथम काशो माधव (विष्णु) का नगर था, किन्तु आगे चलकर वह शैव क्षेत्र हो गया। क्या इस कथन के लिए कोई ऐतिहासिक आधार है ? डा. अलतेकर ने निष्कर्ष निकाला है कि अनार्यों ने Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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