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धर्मशास्त्र का इतिहास
चौड़ाई वाले वस्त्र के मूल्य में अन्तर बताया गया है। इससे प्रकट होता है कि आधुनिक काल के समान ही ई० पू० दूसरी शताब्दी में काशी अपने बारीक वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थी । उपर्युक्त बातों से स्पष्ट होता है कि शतपथ ० के प्रणयन के बहुत पहले से काशी (काशि) एक देश का नाम था और वही नाम पतञ्जलि ( ई० पू० दूसरी शताब्दी) के समय तक चला आया । एक अन्य समान उदाहरण भी है । अवन्ति एक देश का नाम था ( पाणिनि ४।१।१७९, स्त्रियामवन्तिकुन्तिकुरुभ्यश्च; मेघदूत, प्राप्यावन्तीनुदयन - ), किन्तु अवन्ती या अवन्तिका उज्जयिनी का भी नाम था ('अयोध्या मथुरा अवन्तिका ' ) । फाहियान ( ३९९-४१३ ई०) काशी राज्य के वाराणसी नगर में आया था। इससे प्रकट होता है कि लगभग चौथी शताब्दी में भी काशी जनपद का नाम था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। किन्तु महाभाष्य के. निर्देशों से प्रकट होता है कि काशी नगर एवं देश दोनों का नाम था । अनुशासनपर्व (अध्याय ३०) में दिवोदास के पितामह हर्यश्व काशि लोगों के राजा कहे गये हैं जो गंगा एवं यमुना के दुआबे में बीतहव्यों द्वारा तंग किये गये एवं मारे गये थे । हर्यश्व का पुत्र सुदेव था, जो काशि का राजा बना और वह भी अन्त में अपने पिता की गति को प्राप्त हुआ। इसके उपरान्त उसका पुत्र दिवोदास काशियों का राजा बना और उसने गोमती के उत्तरी तट पर सभी वर्णों से संकुल वाराणसी नगर बसाया। इस गाथा से पता चलता है कि काशी एक राज्य का प्राचीन नाम था और प्राचीन विश्वास था कि दिवोदास द्वारा काशियों की राजधानी वाराणसी की प्रतिष्ठापना हुई थी ।
हरिवंश (१, अध्याय २९) ने दिवोदास एवं वाराणसी के विषय में एक लम्बी किन्तु अस्पष्ट गाथा दी है।" इसने ऐल के एक पुत्र आयु के वंश का वर्णन किया है। आयु के एक वंशज का नाम था शुनहोत्र, जिसके काश, शल एव गृत्समद नामक तीन पुत्र थे । काश से 'काशि' नामक शाखा का प्रादुर्भाव हुआ । काश का एक वंशज धन्वन्तरि काश लोगों का राजा हुआ (श्लोक २२) । दिवोदास धन्वन्तरि का पौत्र हुआ। उसने भद्रश्रेण्य के, जो सर्वप्रथम वारा
सी का राजा था, १०० पुत्रों को मार डाला। तब शिव ने अपने गण निकुम्भ को दिवोदास द्वारा अधिकृत वाराणसी का नाश करने के लिए भेजा। निकुम्भ ने उसे एक सहस्र वर्ष तक नष्ट-भ्रष्ट होने का शाप दिया। जब वह नष्ट हो गयी तो वह अविमुक्त कहलायी और शिव वहाँ रहने लगे। इसकी पुनः स्थापना (श्लोक ६८ ) मद्रश्रेण्य के पुत्र दुर्दम द्वारा, जिसे ( क्योंकि वह अभी बच्चा था ) दिवोदास ने नहीं मारा था, हुई । इसके उपरान्त दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन ने उसे दुर्दम से छीन लिया । दिवोदास के पौत्र अलर्क ने, जो काशियों का राजा था, वाराणसी को पुनः बसाया । इस गाथा में सत्य की कुछ रेखा पायी जाती है, अर्थात् वाराणसी का कई बार नाश हुआ और इस पर कई कुलों का राज्य स्थापित हुआ। वायु० ( अध्याय ९२) एवं ब्रह्म० (अध्याय १९) में भी धन्वन्तरि, दिवोदास एवं अलर्क तथा वाराणसी के विपर्ययों का उल्लेख मिलता है।
महाभाष्य (जिल्द १, पृ० ३८० ) में पतञ्जलि ने वाराणसी को गंगा के किनारे अवस्थित कहा है, और पाणिनि (४१३८४) के भाष्य में इन्होंने (जिल्द २, पृ० ३१३) कहा है कि व्यापारी गण वाराणसी को 'जित्वरी' कहते थे । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि वाराणसी बुद्ध-काल ( कम-से-कम पाचवी ई० पू० शताब्दी) में चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी (देखिए महापरिनिब्वानसुत्त एवं महासुदस्रानसुत्त, सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द ११, पृ० ९९ एवं २४७ ) जैसे महान् एवं प्रसिद्ध नगरों में परिगणित होती थी। गौतम बुद्ध ने गया में सम्बोधि प्राप्त करने के उपरान्त वाराणसी के मृगदाव अर्थात् सारनाथ में आकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया। इससे प्रकट होता
२. काशिध्वपि नृपो राजन दिवोदासपितामहः । हर्यश्व इति विख्यातो वभूव जयतां वरः ॥ अनुशासनपर्व (३०११० ) ।
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