________________
अध्याय १३
काशी
विश्व में कोई ऐसा नगर नहीं है जो बनारस (वाराणसी) से बढ़कर प्राचीनता निरन्तरता एवं मोहक आदर का पात्र हो । लगभग तीन सहस्राब्दियों से यह पुनीतता ग्रहण करता आ रहा है। इस नगर के कई नाम प्रचलित रहे हैं, यथा वाराणसी, अविमुक्त एवं कांशी । काशी से बढ़कर हिन्दू मात्र की धार्मिक भावनाओं को जगानेवाला कोई अन्य नगर नहीं है । हिन्दुओं के लिए यह नगर अटूट धार्मिक पवित्रता, पुण्य एवं विद्या का प्रतीक रहा है । अपनी महान् जटिलताओं एवं विरोधों के कारण यह नगर सभी युगों में भारतीय जीवन का एक सूक्ष्म स्वरूप रहता आया है। न केवल हिन्दू धर्म अपने कतिपय सम्प्रदायों के साथ यहाँ फूलता - फलता आया है, प्रत्युत संसार के बहुत बड़े धर्म
धर्म के सिद्धान्त यहाँ उद्घोषित हुए हैं। वाराणसी या काशी के विषय में महाकाव्यों एवं पुराणों में सहस्रों श्लोक कहे गये हैं । गत सैकड़ों वर्षों के भीतर इसके विषय में कतिपय ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है। यहाँ पर हम केवल संक्षेप कुछ कह सकेंगे।
सर्वप्रथम हम इसके प्राचीन इतिहास का संक्षिप्त वर्णन करेंगे। शतपथब्राह्मण' (१३/५/४/२१) ने एक गाथा उद्धृत की है, जिसमें यह वर्णन है कि जिस प्रकार भरत ने सत्वत् लोगों के साथ व्यवहार किया था, उसी प्रकार सत्राजित् के पुत्र शतानीक ने काशि लोगों के पुनीत यज्ञिय अश्व को भगाकर किया था। शतपथब्राह्मण (१४।३।१।२२) में धृतराष्ट्र विचित्रवीर्य को काश्य कहा गया है । गोपथ (पूर्वभाग, २।९) में 'काशी - कोशलाः' का समास आया है । 'कैम्ब्रिज हिस्ट्री आव इण्डिया' (जिल्द १, पृ० ११७ ) में ऐसा संकेत दिया हुआ है कि काशियों की राजधानी वरणावती पर स्थित थी । बृहदारण्यकोपनिषद् (२।१।१ ) एवं कौषीतकि उप० (४११ ) में ऐसा आया है कि अहंकारी बालाकि गार्ग्य काशी के राजा अजातशत्रु के पास इसलिए गया कि वह उसे ( राजा को ) ब्रह्मज्ञान सिखाएगा। पाणिनि (४/२/११६) में काशी शब्द को गण के आदि में दर्शाया गया है (काश्यादिभ्यष्ठनिठौ) । पाणिनि (४।२।११३) में 'काशीयः' रूप भी आया है। यह ज्ञातव्य है कि ऋ० (१०११७९ २ ) के सर्वानुक्रम में ऋषि प्रतर्दन को काशिराज कहा गया है। हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (२।८।१९।६) ने तर्पण में काशीश्वर को विष्णु एवं रुद्रस्कन्द के साथ उल्लिखित किया है। ऋग्वेद
दिवोदास का बहुधा वर्णन आया है। ऋ० (१।१३०/७) में आया है कि इन्द्र ने दिवोदास की ९० नगरियाँ जीत ली थीं और ऋ० (४|३०|२० ) में ऐसा आया है कि इन्द्र ने दिवोदास को पत्थर के १०० नगर प्रदान किये। इन संकेतों से यह कल्पना की जा सकती है कि महाकाव्यों एवं पुराणों में स्वभावत: दिवोदास को भारत के अत्यन्त पुनीत नगर का प्रतिष्ठाता कहा गया है। पाणिनि ( ४ । ११५४) के वार्तिक (४) के महाभाष्य में हमें ' काशि-कोसलीयाः' का उदाहरण मिलता है (जिल्द २, पृ० २२३) । महाभाष्य (जिल्द २, पृ० ४१३ ) में मथुरा एवं काशी के समान लम्बाई
१. तदेतद् गाथाभिगीतम् । शतानीकः समन्तासु मेध्यं सात्राजितो हयम् । आदत्त यज्ञं काशीनां भरतः सत्वतामिवेति ॥ शतपथब्राह्मण (१३/५/४१२१ ) ।
९६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org