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धर्मशास्त्र का इतिहास
पुष्ट आधार नहीं मिल पाते। आज जितने पुराण हमें मिलते हैं वे तीसरी या चौथी शताब्दी के पूर्व के नहीं हैं । अघि कांश भारतीय शान्तिमय एवं अनाकर्षक जीवन बिताते रहे हैं अथवा आज भी वैसा ही जीवन बिता रहे हैं । साधारण मनुष्य की रहस्यात्मक, असामान्य एवं भयाकुल स्थित्यात्मक भूख 'की सन्तुष्टि के लिए इस जीवन में कुछ भी नहीं है । पुराणों में ऐसी गाथाएँ हैं जो कई कोटियों में बाँटी जा सकती हैं, और वे सामान्य लोगों की उपर्युक्त भूख को मिटाती-सी रही हैं। पुराणों की कतिपय गाथाएँ सामान्य जनों के मनोरंजन के लिए हैं। यही बात आज के पश्चिमी देशों की कोटिकोटि जनता के विषय में भी लागू होती है जो बड़े आनन्द के साथ जासूसी एवं अपराध सम्बन्धी गाथाओं को पढ़ती है। पुराणों की कुछ गाथाएँ गम्भीर निर्देश भी देती रही हैं। वे धार्मिक या दार्शनिक सिद्धान्तों या नैतिक मूल्यों या जीवनमापदण्डों को इस प्रकार अलौकिक रंग में रँग देती हैं कि वे स्वयं आकर्षक एवं प्रभावशाली हो उठती हैं। केवल कुछ ही गाथाएँ ऐतिहासिक आधार रखती हैं । किन्तु वे भी किसी व्यक्ति विशेष, जाति-वर्ग, कुल के पक्ष में या विपक्ष में अतिशयोक्तिपूर्ण बातें करती हैं। सहस्रों वर्षों की बातों के विषय में जो कुछ पौराणिक उक्तियाँ एवं निष्कर्ष हैं उनसे ऐतिहासिक तथ्य निकालना उचित नहीं है। पुराणों में देवों एवं ऋषियों के पारस्परिक झगड़ों एवं ईर्ष्याकुल सम्बन्धों की ओर बहुधा संकेत मिलते हैं। उदाहरणार्थ, विष्णुपुराण ( ५|३०|६५ ) में इन्द्र एवं कृष्ण के पारस्परिक युद्ध का वर्णन है। क्या कृष्ण प्रारम्भिक रूप में अनार्य देवता थे ? जब राम से युद्ध करने के लिए परशुराम आये तो परशुराम ने गणेश का दाहिना दाँत तोड़ दिया। राम एवं परशुराम दोनों विष्णु के अवतार कहे गये हैं। ऋषि भृगु ने विष्णु को, गौतम ने इन्द्र को, माण्डव्य ने धर्म को शाप दिया है ( ब्रह्माण्ड ० २।२७।२१-२५ ) ।
कई पुराणों में काशी या वाराणसी की विशद प्रशस्ति गायी गयी है। देखिए मत्स्य० (अध्याय १८० -१८५, कुल ४११ श्लोक), कूर्म० ( १।३१ ३५, कुल २२६ श्लोक ), लिंग० (पूर्वार्ध, अध्याय ९२, कुल १९० श्लोक ), पद्म० ( आदि, ३३-३७, कुल १७० श्लोक ), अग्नि० (११२), स्कन्द ० ( काशी०, अध्याय ६ ), नारदीय ० ( उत्तर, अध्याय ४८ - ५१ ) । केवल काशीखण्ड में काशी एवं इसके उपतीर्थों के विषय में लगभग १५००० श्लोक हैं । पद्मपुराण में आया है कि ऋषियों ने भृगु से पाँच प्रश्न पूछे थे, यथा- काशी की महत्ता क्या है ? इसे कैसे समझा जाय ? कौन लोग यहाँ जायँ ? इसका विस्तार या क्षेत्र क्या है ? तथा इस (काशी) को कैसे प्राप्त किया जाय ? स्कन्द० (काशीखण्ड, अध्याय २६ । २ - ५ ) में भी ऐसे प्रश्नों की चर्चा है; कब से यह अविमुक्त अति प्रसिद्ध हुआ ? इसका नाम अविमुक्त क्यों पड़ा ? यह मोक्ष का साधन कैसे बना? किस प्रकार मणिकर्णिका का कुण्ड तीनों लोकों का पूज्य बना ? जब गंगा वहाँ नहीं थी तो वहाँ पहले क्या था ? इसका नाम वाराणसी कैसे पड़ा ? यह नगर काशी एवं रुद्रावास क्यों कहलाया ? यह आनन्दकानन कैसे हुआ ? तथा आगे चलकर अविमुक्त एवं महाश्मशान क्यों हुआ ? "
शताब्दियों से काशी के पाँच विभिन्न नाम रहे हैं; वाराणसी, काशी, अविमुक्त, आनन्दकानन, श्मशान
बनारस में आर्यों के ऊपर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की। किन्तु यह निष्कर्ष नारदीय पुराण के कथन के विरोध में ही पड़ता है।
६. कि माहात्म्यं कथं वेद्यं सेव्या कैश्च द्विजोत्तम । परिमाणं च तस्याः किं केनोपायेन लभ्यते ॥ पद्म० ( पातालखण्ड, त्रिस्थलसेतु, पृ० ७२ ) ; अविमुक्तमिदं क्षेत्रं कदारभ्य भुवस्तले । परां प्रथितिमापत्रं मोक्षदं चाभवत्कथम् ॥ कथमेषा त्रिलोकोड्या गीयते मणिकर्णिका । तत्रासीत्किं पुरः स्वामिन् यदा नामरनिम्नगा ॥ वाराणसीति काशीति यद्रावास इति प्रभो । अवाप नामधेयानि कथमेतानि सम्पुरी ॥ आनन्दकाननं रम्यमविमुक्तमनन्तरम् । महाश्मशानमिति च कथं ख्यातं शिखिध्वज ॥ स्कन्द० ( काशी० २६।२-५ ) ।
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