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________________ १३३४ धर्मशास्त्र का इतिहास श्रमिक देते हैं) अपने को गंगा में फेंकवा देते हैं।' त्रिस्थलीसेतु ने व्यवस्था दी है कि प्रयाग में आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम प्रायश्चित्त करना चाहिए, यदि अपना कोई सम्बन्धी न हो जो साधिकार उसका श्राद्ध कर सके, तो उसे अपना श्राद्ध भी पिण्डदान तक करना चाहिए। उस दिन उसे उपवास करना चाहिए, दूसरे दिन लिखित रूप से उसे संकल्प करना चाहिए कि वह इस विधि से मरना चाहता है और विष्णु का ध्यान करते हुए उसे जल में प्रवेश करना चाहिए। उसकी मृत्यु पर उसके सम्बन्धियों को केवल तीन दिनों का आशौच लगना चाहिए ( दस दिनों का नहीं) और चौथे दिन ११वें दिन के श्राद्ध कर्म उसके लिए करने चाहिए। प्रयाग में धार्मिक आत्महत्या करने की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को समझना कठिन नहीं है । शताब्दियों से यह दार्शनिक भावना घर कर गयी थी कि आत्मा जनन-मरण के असंख्य चक्रों में घूमती रहती है। प्राचीन शास्त्रों ने इसकी मुक्ति के लिए दो साधन उपस्थित किये थे; तत्वज्ञान एवं तीर्थ पर आत्महत्या। उस यात्री के लिए मृत्यु कोई भयंकर भावना नहीं थी जो जान-बूझकर अपार कष्टों एवं असुविधाओं को सहता है। यदि कोई मृत्यु द्वारा जीवन को समाप्त करने के लिए दृढसंकल्प है तो उसके लिए उन गंगा एवं यमुना के संगम, प्रयाग में आत्महत्या करने से बढ़कर कौन-सा अधिक भद्रमय वातावरण प्राप्त हो सकता है, जो हिमालय से निकलकर प्रयाग में मिलती हैं और विशाल होकर आगे बढ़ती हैं और कोटि-कोटि लोगों को उर्वर भूमि देती हुई उन्हें समृद्ध बनाती हैं। 'जो लोग प्रयाग में मरते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते', ऐसा पुराणों में आया है। निबन्धों ने इस कथन पर विवेचन उपस्थित किया है ( मत्स्य० १८०।७१ एवं ७४) । मत्स्य ० ( १८२।२२-२५) में आया है" ' मृत्यु के समय, जब कि शरीर के मर्म भाग छिन्न भिन्न हो जाते हैं; उस समय जब कि व्यक्ति वायु द्वारा दूसरे शरीर में फेंका जाता है, स्मृति अवश्य दुर्बल हो जाती है। किन्तु अविमुक्त (वाराणसी) में मरते समय कर्मों के कारण दूसरे शरीर में जाने वाले भक्तों के कान में स्वयं शिव उच्च ज्ञान देते हैं। मणिकर्णिका के पास मरने वाला व्यक्ति वांछित फल पाता है; वह ईश्वर द्वारा प्रदत्त उस फल को पाता है जो अपवित्र लोगों को मिलना कठिन है ।' काशीखण्ड में स्पष्ट उल्लिखित है कि इन नगरों (काशी आदि) में मोक्ष सीधे रूप में नहीं प्रतिफलित होता । तथापि ऐसी उक्ति के रहते हुए भी पुराणों के कथनों के शाब्दिक अर्थ को लेकर सामान्य लोगों के मन में ऐसा विश्वास घर कर गया कि प्रयाग या काशीक्षेत्र में मरने से मोक्ष फल की प्राप्ति होती है। धार्मिक आत्महत्या का इतिहास बहुत पुराना है। ई० पू० चौथी शताब्दी में तक्षशिला से कलनॉस नामक व्यक्ति सिकन्दर के साथ भारत से बाहर गया और उसने ७० वर्ष की अवस्था में शरीर-व्याधि से तंग आकर सौसा नामक स्थान में अपने को चिता में भस्म कर दिया (देखिए जे० डब्लू० मैक् क्रिण्डल का 'इन्वेजन आव इण्डिया बाई अलेक्जेण्डर दि ग्रेट', नवीन संस्करण, १८९६ ई०, पृ० ४६, ३०१ एवं ३८६- ३९२ ) । स्ट्रैबो ने शर्मनोचेगस नामक भड़ोच के भारतीय ३८. स्कन्द ० ( काशीखण्ड) में निम्न श्लोक आये हैं, जो मत्स्य० ( १८२।२२-२५) को बुहराते हैं; शिव काशी में मरते हुए व्यक्ति के दाहिने कान में ब्रह्मज्ञान का मन्त्र फूंकते हैं जो उसकी आत्मा की रक्षा करता है। ब्रह्मज्ञानेन मुच्यन्ते नान्यथा जन्तवः क्वचित् । ब्रह्मज्ञानमयें क्षेत्रे प्रयागे वा तनुत्यजः । ब्रह्मज्ञानं तदेवाहं काशीसंस्थितिभागिनाम् । विशामि तारकं प्रान्ते मुच्यन्ते ते तु तत्क्षणात् ॥ (३२।११५-११६) ; साक्षान्मोक्षो न चंतासु पुरीषु प्रियभाषिणि । स्कन्द ० (काशी० ८२३, यहाँ अगस्त्य ने लोपामुद्रा से केहा है) । मत्स्य ० के श्लोक हैं; अन्तकाले मनुष्याणां छिद्यमानेषु मर्मसु । वायुना प्रेर्यमाणानां स्मृतिर्ने वोपजायते ॥ अविमुक्ते ह्यन्तकाले भक्तानामीश्वरः स्वयम् । कर्मभिः प्रेर्यमाणानां कर्णजापं प्रयच्छति ॥ मणिक त्यजन्देहं गतिमिष्टां व्रजेन्नरः । ईश्वरप्रेरितो याति दुष्प्रापामकृतात्मभिः । (१८२।२२-२५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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