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प्रयाग में देहत्रयाग का विधान
को काट-काटकर पक्षियों को देना। ह्वेनसांग (६२९-६४५ ई०) ने इस धार्मिक आत्महत्या का उल्लेख किया है। कल्पतरु (तीर्थ, सन् १११०-११२० ई.) ने महापथयात्रा का विशेष वर्णन किया है (पृ० २५८-२६५) । क्रमशः प्रयाग या काशी में आत्महत्या करके मर जाने की भावना अन्य तीर्थों तक फैलती गयी। वनपर्व (८३।१४६, १४७) ने पृथूदक (पंजाब के कर्नाल जिले में पहोवा) में आत्महत्या की बात चलायी है। ब्रह्मपुराण (१७७।२५) ने मोक्ष की आकांक्षा रखनेवाले द्विजों को पुरुषोत्तमक्षेत्र में आत्महत्या करने को कहा है। लिंग० (पूर्वार्ध, ९२।१६८-१६९) का कथन है--'यदि कोई ब्राह्मण श्रीशैल पर अपने को मार डालता है तो वह अपने पापों को काट डालता है और मोक्ष पाता है, जैसा कि अविमुक्त (वाराणसी) में ऐसा करने से होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।' पद्म० (आदि, १६॥ १४-१५) ने नर्मदा एवं काबेरी (एक छोटी नदी, दक्षिण वाली बड़ी नदी नहीं) के संगम पर अग्नि या उपवास से मर जाने पर इसी प्रकार के फल की घोषणा की है।
कालान्तर में प्रयाग या काशी में आत्महत्या करने या महाप्रस्थान के विषय में विरक्ति उत्पन्न हो गयी। कलिवर्यों में महाप्रस्थान, बूढ़ों द्वारा प्रपात से गिरकर या अग्नि में जलकर मर जाना सम्मिलित कर लिया गया (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४)। मध्यकाल के कुछ पश्चाद्भावी लेखकों ने आत्महत्या-सम्बन्धी अनुमति का खण्डन किया है। महाभारत के टीकाकार नीलकण्ठ ने कहा है कि वनपर्व (८५।८३) का कथन प्रयाग में स्वाभाविक मृत्यु की ओर संकेत करता है न कि जान-बूझकर मरने की ओर । यही बात खिल मन्त्र ('सितासित' आदि) के विषय में भी है। उन्होंने वनपर्व के श्लोक की दो वैकल्पिक व्याख्याएँ की हैं; यह वचन उनको अनुमति देता है जो असाध्य रोग से पीड़ित हैं, वे प्रपात से गिरकर मर जाने की अपेक्षा प्रयाग में आत्महत्या कर सकते हैं; दूसरा विकल्प यह है कि यह श्लोक ब्राह्मणों के लिए नहीं प्रत्युत अन्य तीन वर्षों के लिए व्यवहृत होता है।
गंगावाक्यावली (पृ० ३०४-३१०) एवं तीर्थचिन्तामणि (पृ० ४७-५२) दोनों ने सभी वर्गों को प्रयाग में आत्महत्या करने की अनुमति दी है। प्रयाग में आत्महत्या करने के विषय में तीर्थप्रकाश (पृ० ३४६-३५५) ने एक लम्बा, विद्वत्तापूर्ण तथा विवादात्मक विवेचन उपस्थित किया है। इसका अपना मत, लगता है, ऐसा है कि प्रयाग में ब्राह्मण को धार्मिक आत्महत्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह कलिवयं है, किन्तु अन्य वर्गों के लोग ऐसा कर सकते हैं। त्रिस्थलीसेतु ने भी लम्बा विवेचन उपस्थित किया है (पृ० ३७-५५) और इसका निष्कर्ष है कि मोक्ष एवं अन्य फलों (स्वर्ग आदि) की प्राप्ति के लिए प्रयाग में आत्महत्या करना पाप नहीं है, ब्राह्मणों के लिए भी, जैसा कि कुछ लोगों का कथन है, ऐसा करना कलिवयं नहीं है, असाध्य रोगी या अच्छे स्वास्थ्य वाले सभी प्रयाग में आत्महत्या कर सकते हैं, किन्तु अपने बूढ़े माता-पिता को परित्यक्त कर तथा युवा पत्नी, बच्चों को उनके भाग्य पर छोड़कर किसी को आत्महत्या करने का अधिकार नहीं है और गर्भवती नारी, छोटे-छोटे बच्चों वाली नारी तथा बिना पति से अनुमति लिये कोई भी नारी प्रयाग में आत्महत्या नहीं कर सकती। यह जानकर प्रसन्नता का अनुभव होता है कि नारायण भट्ट जैसे व्यक्ति ने, जो अपने काल के सबसे बड़े एवं प्रकाण्ड विद्वान् थे और जो प्रयाग में आत्महत्या करने के विषय में शास्त्रीय व्यवस्थाओं को जानते थे, अपवाद दिये हैं जो तर्क, मत-भावना एवं सामान्य ज्ञान को जंचते हैं। नारायण भट्ट अपने समय से सैकड़ों वर्ष-प्राचीन परम्पराओं को भी जानते थे और सम्भवतः उन्हीं का उन्होंने अनुसरण किया है। अलबरूनी ने अपने ग्रन्थ (१०३० ई० में प्रणीत) में लिखा है कि 'धार्मिक आत्महत्या तभी की जाती है जब कि व्यक्ति जीवन से थक गया रहता है, जब कि वह असाध्य रोग से पीड़ित रहता है या वह बूढ़ा हो गया है, अत्यधिक दुर्बल या अपरिहार्य शरीरदोष से पीड़ित है। ऐसी आत्महत्या शिष्ट लोग नहीं करते, केवल वैश्य या शूद्र करते हैं। विशिष्ट व्यवस्थाओं के अनुसार ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को जलकर मर जाना मना है। इसी से ऐसे लोग (ब्राह्मण एवं क्षत्रिय) यदि मरना चाहते हैं तो ग्रहण के समय या अन्य विधियों से मरते हैं या अन्य लोगों द्वारा (जिन्हें वे पारि
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