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धर्मशास्त्र का इतिहास
कर्णदेव, चन्देल धंगदेव एवं चालुक्य सोमेश्वर ने प्रयाग या तुंगभद्रा पर आत्महत्या की थी। मगध के राजा कुमारगुप्त ने गोबर के उपलों की अग्नि में प्रवेश किया था। मत्स्य० (१०७९-१० पप्र०, आदि, ४४।२) में आया है'वह व्यक्ति, जो रोगग्रस्त न रहने पर भी, शरीर का ह्रास न होने पर भी और पाँचों इन्द्रियों को वश में रखने पर भी कर्षाग्न वा करीषाग्नि ( गोबर के उपलों की अग्नि ) में जलकर मर जाता है वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक रहता है। जितने उसके शरीर में छिद्र होते हैं।' राजतरंगिणी (६।१४ ) में ऐसे राजकर्मचारियों का उल्लेख है जो उपवास से आत्महत्या ( प्रायोपवेश) करनेवालों का निरीक्षण करते थे । ३६
उस महत्वपूर्ण श्लोक का अनुवाद, जिसके आधार पर प्रयाग में आत्महत्या की अनुमति मिली है, निम्न है'तुम्हें वेदवचन एवं लोकवचन के निषेध करने पर भी प्रयाग में प्राण त्याग की भावना से दूर नहीं रहना चाहिए। ३७ वेदवचन निम्न है (वाज० सं० ४०/३) जिसका शाब्दिक अर्थ है 'असुरों के लोक अन्ध हैं, जो लोग आत्महत्या करते हैं वे इन लोकों में जाते हैं ।' यह मन्त्र आत्महत्या करने के विषय में नहीं है, प्रत्यत उसके लिए है जो सत्य आत्मा अज्ञान में रहकर मानों अपनी आत्मा का हनन करता है । किन्तु विद्वान् लेखकों एवं कवियों ने भी इसे आत्महत्यासम्बन्धी मान लिया ( उत्तर - रामचरित, अंक ४१३ ) । दूसरा वैदिक वचन शतपथब्राह्मण (१०।२।६।७ ) का है— ' पूर्ण जीवन के पूर्व मर जाने की अभिलाषा को जीतना चाहिए, क्योंकि इससे ( पूरी आयु के पूर्व मर जाने से ) स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती ।' लोकवचन का तात्पर्य है वे स्मृति वचन जो आत्महत्या को वर्जित मानते हैं । यथा गौतम ( १४/१२). वसिष्ठ ० ( २३३१४-१५), मनु ( ५/८८ ) एवं विष्णुधर्मसूत्र ( २२/५६ ) ।
इसमें सन्देह नहीं कि कुछ स्मृतियों एवं महाभारत ने स्वयं तथा पुराणों ने कुछ परिस्थितियों में आत्महत्या को गर्हित नहीं माना है। कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। कूर्म के दो श्लोक ये हैं-' वह लक्ष्य, जो योगी मनुष्य या संन्यासी को प्राप्त होता है, उसे भी मिलता है जो गंगा-यमुना के संगम पर प्राण त्यागता है। जो भी कोई जानकर या अनजान में गंगा में मरता है वह स्वर्ग में जन्म लेता है और नरक नहीं देखता ।' कूर्म ० ( १।३२।२२ ) ने स्पष्ट कहा है, 'सहस्रों जन्मों के उपरान्त मोक्ष मिल सकता है या नहीं भी मिल सकता, किन्तु एक ही जन्म से काशी में मोक्ष मिल सकता है।' पद्म० ( सृष्टि ६०/६५) में आया है -- 'जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे यदि कोई गंगा में मरता है तो वह मरने पर स्वर्ग एवं मोक्ष पाता है ।' स्कन्द० ( काशी० २२।७६ ) में आया है--' जो इस पवित्र स्थल में किसी प्रकार प्राण त्याग करता है, उसे आत्महत्या का पाप नहीं लगता और वह वांछित फल पाता है ।' कूर्म० ( ११३८।३-१२ ) ने चार प्रकार की आत्महत्या का उल्लेख किया है और उससे सहस्रों वर्षो तक स्वर्ग लोक का आश्वासन एवं उत्तम फलों की प्राप्ति की ओर संकेत किया है, यथा (१) सूखे उपलों की धीमी अग्नि में अपने को जलाना, (२) गंगा-यमुना के संगम में डूब मरना, (३) गंगा की धारा में सिर नीचे कर जल पीते हुए पड़े रहकर मर जाना तथा ( ४ ) अपने शरीर के मांस
३६. आइन-ए-अकबरी (ग्लैडविन द्वारा अनूदित एवं प्रकाशित, १८०० ई०) में पाँच प्रकार की धार्मिक पुण्यदायनी आत्महत्याओं का वर्णन है, यथा ( १ ) उपवास करके मर जाना, (२) अपने को करीषों में ढँककर आग लगा कर मर जाना, (३) हिम में गड़कर मर जाना, (४) गंगासागर - संगम में डूबे रह कर अपने पापों को गिनते रहना जब तक कि ग्राह (मगर) आकर निगल न जाय एवं (५) गंगा-यमुना के संगम पर प्रयाग में अपना गला काटकर मर जाना । ३७. न वेदवचनात्तात न लोकवचनादपि । मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ॥ वनपर्व ( ८५ ८३ ) ; नारदीय० (उत्तर, ६३।१२९) ; पद्म० ( आदि, ३९।७६ ) ; अग्नि० ( १११।८ ) ; मत्स्य० (१०६ २२ ) ; कूर्म ० ( १।३७) १४ ) ; पद्म० (३३।६४) ।
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