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गंगा स्नानविधि, गंगा में अस्थिविसर्जन
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यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मत्स्य ० ( १०२।२-३१) के श्लोक, जिनका निष्कर्ष ऊपर दिया गया है, कुछ अन्तरों के साथ पद्म० ( पातालखण्ड ८९।१२ ४२ एवं सृष्टिखण्ड २०११४५ - १७६) में भी पाये जाते हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व (१०५०२ ) में गंगा स्नान के समय के मन्त्र दिये हुए हैं । १५
हमने इस ग्रन्थ के इस खण्ड के अध्याय ७ में देख लिया है कि विष्णुधर्मसूत्र आदि ग्रन्थों ने अस्थि-भस्म या जली हुई अस्थियों का प्रयाग या काशी या अन्य तीर्थों में प्रवाह करने की व्यवस्था दी है। हमने अस्थि-प्रवाह की विधि का वर्णन वहाँ कर दिया है, दो-एक बातें यहाँ जोड़ दी जा रही हैं। इस विषय में एक ही श्लोक कुछ अन्तरों के साथ कई ग्रन्थों में आया है । " अग्निपुराण में आया है- 'मृत व्यक्ति का कल्याण होता है जब कि उसकी अस्थियां गंगा में डाली जाती हैं; जब तक गंगा के जल में अस्थियों का एक टुकड़ा भी रहता है तब तक व्यक्ति स्वर्ग में निवास करता है।' आत्मघातियों एवं पतितों की अन्त्येष्टि-क्रिया नहीं की जाती, किन्तु यदि उनकी अस्थियाँ भी गंगा में रहती हैं तो उनका कल्याण होता है। तीर्थचि ० एवं तीर्थप्र० ने ब्रह्म० के ढाई श्लोक उद्धृत किये हैं जो अस्थि-प्रवाह के कृत्य को निर्णयसिन्धु की अपेक्षा संक्षेप में देते हैं।" श्लोकों का अर्थ यह है- 'अस्थियाँ ले जानेवाले को स्नान करना चाहिए; अस्थियों पर पंचगव्य छिड़कना चाहिए, उन पर सोने का एक टुकड़ा, मधु एवं तिल रखना चाहिए, उन्हें किसी मिट्टी के पात्र में रखना चाहिए और इसके उपरान्त दक्षिण दिशा में देखना चाहिए तथा यह कहना चाहिए कि 'धर्म को नमस्कार ।' इसके उपरान्त गंगा में प्रवेश कर यह कहना चाहिए 'धर्म ( या विष्णु) मुझसे प्रसन्न हों' और अस्थियों को जल में बहा देना चाहिए। इसके उपरान्त उसे स्नान करना चाहिए; बाहर निकलकर सूर्य को देखना चाहिए और किसी ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो मृत की स्थिति इन्द्र के समान हो जाती है।' और देखिए स्कन्द० (काशीखण्ड, ३०।४२-४६) जहाँ यह विधि कुछ विशद रूप में वर्णित है। गंगा में अस्थि-प्रवाह की
१५. विष्णुपादाब्जसम्भूते गंगे त्रिपथगामिनि । धर्मव्रतेति विख्याते पापं मे हर जाह्नवि ॥ श्रद्धया भक्तिसम्पन्ने ( ? ) श्रीमातर्देवि जाह्नवि । अमृतेनाम्बुना देवि भागीरथ पुनीहि माम् ॥ स्मृतिच० ( १|१३१ ) ; प्राय० तत्त्व ० (५०२ ) ; ; त्वं वेव सरितां नाथ त्वं देवि सरितां बरे । उभयोः संगमे स्नात्वा मुञ्चामि दुरितानि वै । वही । और देखिए पद्म० ( सृष्टिखण्ड, ६०/६० ) ।
१६. यावदस्थि मनुष्यस्य गंगायाः स्पृशते जलम् । तावत्स पुरुषो राजन् स्वर्गलोके महीयते ॥ वनपर्व ( ८५ । ९४= पद्म० ११३९.८७ ) ; अनुशासनपर्व ( ३६।३२ ) में आया है--' यावदस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति हि शरीरिणः । तावद्वर्षसहस्राणि महीयते ।।' यही बात मत्य० ( १०६।५२ ) में भी है। कूर्म० ( १।३७।३२ ) ने 'पुरुषस्य तु' पढ़ा है। नारद ० ( उत्तर, ४३।१०९) में आया है - ' यावन्त्यस्थोनि गंगायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य वै । तावद्वर्ष... महीयते ।' पुनः नारद ० ( उसर, ६२।५१ ) में आया है -- यावन्ति नखलोमानि गंगातोये पतन्ति वै । तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ नारदीय० (पूर्वार्ध, १५११६३ ) – केशास्थिनखदन्ताश्च भस्मापि नृपसत्तम । नयन्ति विष्णुसदनं स्पृष्टा गांगेन वारिणा ॥
१७. स्नात्वा ततः पंचगवेन सिक्त्वा हिरण्यमध्वाज्यतिलेन योज्यम् । ततस्तु मृत्पिण्डपुटे निधाय पश्यन् दिशं प्रेतगणोपगूढाम् ॥ नमोऽस्तु धर्माय वदन् प्रविश्य जलं स मे प्रीत इति क्षिपेच्च । स्नात्वा तथोत्तीर्य च भास्करं च दृष्ट्वा प्रदद्यावथ दक्षिणां तु । एवं कृतं प्रेतपुरस्थितस्य स्वर्गे गतिः स्यात्त, महेन्द्र तुल्या ब्रह्म० (तीर्थचि०, पृ० २६५-२६६ एवं तीर्यप्र०, ५० ३७४) । गंगाबा० (१०२७२ ) ने कुछ अन्तर के साथ इसे ब्रह्माण्ड से उद्धृत किया है, यथा--': -- 'यस्तु सर्वहितो विष्णुः स मे प्रीत इति क्षिपेत् ।' और देखिए नारद० ( उत्तर, ४३।११३-११५) ।
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