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धर्मशास्त्र का इतिहास
स्नान की व्यवस्था होती है। कोई किसी कूप या धारा से पात्र में जल लेकर स्नान कर सकता है या बिना इस विधि से भी स्नान कर सकता है। 'नमो नारायणाय' मन्त्र के साथ बुद्धिमान् लोगों को तीर्थस्थल का ध्यान करना चाहिए। हाथ में दर्भ (कुश) लेकर, पवित्र एवं शुद्ध होकर आचमन करना चाहिए । चार वर्गहस्त स्थल को चुनना चाहिए और निम्न मन्त्र के साथ गंगा का आवाहन करना चाहिए; 'तुम विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई हो, तुम विष्णु से भक्ति रखती हो, तुम विष्णु की पूजा करती हो, अतः जन्म से मरण तक किये गये पापों से मेरी रक्षा करो। स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी में ३५ करोड़ तीर्थ हैं; हे जाह्नवी गंगा, ये सभी देव•तुम्हारे हैं। देवों में तुम्हारा नाम नन्दिनो (आनन्द देनेवाली) और नलिनी भी है तथा तुम्हारे अन्य नाम भी हैं, यथा दक्षा, पृथ्वी, विहगा, विश्वकाया, अमृता; शिवा, विद्याधरी, सुप्रशान्ता, शान्तिप्रदायिनी।१२ स्नान करते समय इन नामों का उच्चारण करना चाहिए, तब तीनों लोकों में बहनेवाली गंगा पास में चली आयेगी (भले ही व्यक्ति घर पर ही स्नान कर रहा हो) । व्यक्ति को उस जल को, जिस पर सात बार मन्त्र पढ़ा गया हो, तीन या चार या पाँच या सात बार सिर पर छिड़कना चाहिए। नदी के नीचे की मिट्टी का मन्त्र-पाठ के साथ लेप करना चाहिए। इस प्रकार स्नान एवं आचमन करके व्यक्ति को बाहर आना चाहिए और दो श्वेत एवं पवित्र वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके उपरान्त उसे तीन लोकों के सन्तोष के लिए देवों, ऋषियों एवं पितरों का यथाविधि तर्पण करना चाहिए।" पश्चात् सूर्य को नमस्कार एवं तीन बार प्रदक्षिणा कर तथा किसी ब्राह्मण, सोना एवं गाय का स्पर्श कर स्नानकर्ता को विष्ण मन्दिर (या अपने घर, पाठान्तर के अनुसार) में जाना चाहिए।"
१२. स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० १८२) ने मत्स्य० (१०२) के श्लोक (१-८) उद्धृत किये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने वहीं गंगा के १२ विभिन्न नाम दिये हैं। पा० (४१८९।१७-१९) में मत्स्य० के नाम पाये जाते हैं। इस अध्याय के आरम्भ में गंगा के सहस्र नामों की ओर संकेत किया जा चुका है।
१३. तर्पण के दो प्रकार हैं-प्रधान एवं गौण। प्रथम विद्याध्ययन समाप्त किये हुए द्विजों द्वारा देवों, ऋषियों एवं पितरों के लिए प्रति दिन किया जाता है। दूसरा स्नान के अंग के रूप में किया जाता है। नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविषं स्नानमुच्यते । तर्पणं तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन प्रकीर्तितम् ॥ ब्रह्म (गंगाभक्ति०, १० १६२) । तर्पण स्नान एवं ब्रह्मयज्ञ दोनों का अंग है। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १७ । तर्पण अपनी वेद-शाखा के अनुसार होता है। दूसरा नियम यह है कि तर्पण तिलयुक्त जल से किसी तीर्थ-स्थल, गया में, पितृपक्ष (आश्विन के कृष्णपक्ष) में किया जाता है। विधवा भी किसी तीर्थ में अपने पति या सम्बन्धी के लिए तर्पण कर सकती है। संन्यासी ऐसा नहीं करता। पिता वाला व्यक्ति भी तर्पण नहीं करता, किन्तु विष्णुपुराण के मत से वह तीन अंजलि देवों, तीन ऋषियों को एवं एक प्रजापति ('देवास्तृप्यन्ताम्' के रूप में) को देता है। एक अन्य नियम यह है कि एक हाथ (वाहिने) से श्राव में या अग्नि में आहुति दी जाती है, किन्तु तर्पण में जल दोनों हाथों से स्नान करने वाली नदी में डाला जाता है या भूमि पर छोड़ा जाता है-श्रावे हवनकाले च पाणिनकेन दीयते। तर्पणे तूमयं कुर्यादेष एव विधिः स्मृतः ॥ नारदीय. (उत्तर, ५७।६२-६३) । यदि कोई विस्तृत विधि से तर्पण न कर सके तो वह निम्न मन्त्रों के साथ (जो वायुपुराण, ११०।२१-२२ में दिये हुए हैं) तिल एवं कुश से मिश्रित जल को तीन अंजलियां दे सकता है--'आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः। तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः॥ अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥'
१४. तर्पण के लिए देखिए 'आह्निकसूत्रावली' या नित्यकर्म विधि संबन्धी कोई भी पुस्तक । 'धर्मराज', 'चित्रगुप्त के लिए देखिए वराहपुराण (अध्याय २०३-२०५)।
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