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________________ तट की परिभाषाएं, गंगास्नान की विधि १३२३ पद्म० ( सृष्टि ० ६०।३५) में आया है कि विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का । इसमें गंगा की प्रशस्ति इस प्रकार की गयी है --पिताओं, पतियों, मित्रों एवं सम्बन्धियों के व्यभिचारी, पतित, दुष्ट, चाण्डाल एवं गुरुघाती हो जाने पर या सभी प्रकार के पापों एवं द्रोहों से संयुक्त होने पर क्रम से पुत्र, पत्नियाँ, मित्र एवं सम्बन्धी उनका त्याग कर देते हैं, किन्तु गंगा उन्हें नहीं परित्यक्त करती ( पद्म पुराण सृष्टिखण्ड, ६०।२५-२६)। कुछ पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल के विस्तार के विषय में व्यवस्था दी हुई है । नारदीय० ( उत्तर, ४३।११९१२० ) में आया है -- गंगा के तीर से एक गव्यूति तक क्षेत्र कहलाता है, इसी क्षेत्र सीमा के भीतर रहना चाहिए, किन्तु तीर पर नहीं, गंगातीर का वास ठीक नहीं है। क्षेत्र-सीमा दोनों तीरों से एक योजन की होती है अर्थात् प्रत्येक तीर मे दो कोस तक क्षेत्र का विस्तार होता है।" यम ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि वनों, पर्वतों, पवित्र नदियों एवं तीर्थों के स्वामी नहीं होते, इन पर किसी का प्रभुत्व (स्वामी रूप से) नहीं हो सकता । ब्रह्मपुराण का कथन है कि नदियों से चार हाथ की दूरी तक नारायण का स्वामित्व होता है और मरते समय भी ( कण्ठगत प्राण होने पर भी ) किसी को उस क्षेत्र में दान नहीं लेना चाहिए। गंगाक्षेत्र के गर्भ (अन्तर्वृत्त), तीर एवं क्षेत्र में अन्तर प्रकट किया गया है। गर्भ वहाँ तक विस्तृत हो जाता है जहाँ तक भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक धारा पहुँच जाती है और उसके आगे तीर होता है, जो गर्भ से १५० हाथ तक फैला हुआ रहता है तथा प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र विस्तृत रहता है। अब गंगा के पास पहुँचने पर स्नान करने की पद्धति पर विचार किया जायगा। गंगा स्नान के लिए संकल्प करने के विषय में निबन्धों ने कई विकल्प दिये हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व ( पृ० ४९७ - ४९८ ) में विस्तृत संकल्प दिया हुआ है। गंगावाक्यावली के संकल्प के लिए देखिए नीचे की टिप्पणी ।" मत्स्य० (१०२) में जो स्नान विधि दी हुई है वह सभी वर्णों एवं वेद के विभिन्न शाखानुयायियों के लिए समान है। मत्स्यपुराण (अध्याय १०२ ) के वर्णन का निष्कर्ष यों है-बिना स्नान के शरीर की शुद्धि एवं शुद्ध विचारों का अस्तित्व नहीं होता, इसी से मन को शुद्ध करने के लिए सर्वप्रथम १०. तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परितः क्षेत्रमुच्यते । तीरं त्यक्त्वा वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते । एकयोजनविस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात् । नारदीय० ( उत्तर, ४३ । ११९-१२० ) । प्रथम को तीर्थचि० ( पृ० २६६ ) ने स्कन्दपुराण से उद्धृत किया है और व्याख्या की है- 'उभयतटे प्रत्येकं क्रोशद्वयं क्षेत्रम् ।' अन्तिम पाद को तीर्थचि० ( पृ० २६७) एवं गंगावा ० ( पृ० १३६) ने भविष्य० से उद्धृत किया है। 'गव्यूति' दूरी या लम्बाई का माप है जो सामान्यतः दो कोश (कोस) के बराबर है। लम्बाई के मापों के विषय में कुछ अन्तर है। अमरकोश के अनुसार 'गव्यूति' दो कोश के बराबर है, यथा- 'गव्यूतिः स्त्री क्रोशयुगम् । वायु० (८।१०५ एवं १०१।१२२-१२६) एवं ब्रह्माण्ड ० ( २०७१९६-१०१ ) के अनुसार २४ अंगुल - एक हस्त, ९६ अंगुल - एक धनु ( अर्थात् 'दण्ड', 'युग' या 'नाली'); २००० धनु (या दण्ड या युग या नालिका) गव्यूति एवं ८००० धनु - योजन। मार्कण्डेय० (४६।३७-४०) के अनुसार ४ हस्त == धनु या दण्ड या युग या नालिका; २००० धनु =क्रोश, ४ क्रोश = गव्यूति ( जो योजन के बराबर है)। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ५ । ११. अद्यामु मासि अमुकपक्षे अमुकतिथौ सद्यः पापप्रणाशपूर्वक सर्वपुण्यप्राप्तिकामो गंगायां स्नान महं करिष्ये । गंगावा ० ( १०१४१) । और देखिए तीर्थचि० ( १० २०६ - २०७ ), जहाँ गंगास्नान के पूर्वकालिक संकल्पों के कई विकल्प दिये हुए हैं। ९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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