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धर्मशास्त्र का इतिहास
है। मत्स्य०, कूर्म०, गरुड़ एवं पद्म० का कहना है कि गंगा में पहुँचना सब स्थानों में सरल है, केवल गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं वहाँ जहाँ यह समुद्र में मिलती है, पहुँचना कठिन है, जो लोग यहाँ स्नान करते हैं, स्वर्ग जाते हैं और जो लोग यहाँ मर जाते हैं वे पुनः जन्म नहीं पाते । नारदीयपुराण का कथन है कि गंगा सभी स्थानों में दुर्लभ है, किन्तु तीन स्थानों पर अत्यधिक दुर्लभ है। वह व्यक्ति, जो चाहे या अनचाहे गंगा के पास पहुँच जाता है और मर जाता है, स्वर्ग जाता है और नरक नहीं देखता (मत्स्य० १०७।४)। कर्म० का कथन है कि गंगा वायुपुराण द्वारा घोषित स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी में स्थित ३५ करोड़ पवित्र स्थलों के बराबर है और वह उनका प्रतिनिधित्व करती है। पद्मपुराण ने प्रश्न किया है-'बहुत धन के व्यय वाले यज्ञों एवं कठिन तपों से क्या लाभ, जब कि सुलभ रूप से प्राप्त होनेवाली एवं स्वर्ग-मोक्ष देनेवाली गंगा उपस्थित है ! नारदीय पुराण में भी आया है-आठ अंगों वाले योग, तपों एवं यज्ञों से क्या लाभ? गंगा का निवास इन सभी से उत्तम है। मत्स्य० (१०४।१४-१५) के दो श्लोक यहाँ वर्णन के योग्य हैं--'पाप करनेवाला व्यक्ति भी सहस्रों योजन दूर रहता हुआ गंगा-स्मरण से परम पद प्राप्त कर लेता है। गंगा के नाम-स्मरण एवं उसके दर्शन से व्यक्ति क्रम से पापमुक्त हो जाता है एवं सुख पाता है, उसमें स्नान करने एवं जल के पान से वह सात पीढ़ियों तक अपने कुल को पवित्र कर देता है।' काशीखण्ड (२७।६९) में ऐसा आया है कि गंगा के तट पर सभी काल शुभ हैं, सभी देश शुभ हैं और सभी लोग दान ग्रहण के योग्य हैं।
वराहपुराण (अध्याय ८२) में गंगा की व्युत्पत्ति 'गां गता' (जो पृथिवी की ओर गयी हो) है । पद्म० (सृष्टि खंड, ६०।६४-६५)ने गंगा के विषय में निम्न मूलमन्त्र दिया है--'ओं नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः।
वाक्यावली (पृ० ११०),तीर्थचि० (१०२०२), गंगाभक्ति० (१०९)। दूसरा श्लोक पप० (६।२११८ एवं २३॥१२) एवं ब्रह्म (१७५।८२) में कई प्रकार से पढ़ा गया है, यया--गंगा ....यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि। मुख्यते सर्व. पापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥ पद्म० (१॥३१७७)में आया है...शतैरपि । नरो न नरकं याति किं तया सदृशं भवेत् ॥
६. दर्शनात्स्पर्शनात्पानात् तथा गंगेति कीर्तनात् । स्मरणादेव गंगायाः सद्यः पापैःप्रमुच्यते ॥ भविष्य० (तीर्थचि० पृ० १९८; गंगावा०,पृ.० १२ एवं गंगाभक्ति०,पृ०९) प्रथम पाद अनुशासन० (२६१६४) एवं अग्नि० (११०।६) में आया है। गच्छंस्तिष्ठञ् जपन्ध्यायन भुजम् जाग्रत् स्वपन वदन् । यः स्मरेत् सततं गंगां सोऽपि मुच्येत बन्धनात् ॥ स्कन्द० (काशीखण्ड, पूर्वार्ध २७३३७) एवं नारदीय० (उत्तर, ३९।१६-१७)।
७. सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिष स्थानेष दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे॥ तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः॥ मत्स्य० (१०६।५४); कूर्म० (१॥३७॥३४); गरुड़ (पूर्वार्ध, ८१११-२); पम० (५।६०। १२०) । नारदीय० (४०।२६-२५) में ऐसा पाठान्तर है-'सर्वत्र दुर्लभा गंगा त्रिषु स्थानेषु चाधिका। गंगाद्वारे... संगमे ॥ एषु स्नाता दिवं....र्भवाः॥
८. तिस्त्रः कोट्योधकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत् । दिवि भुष्यन्तरिक्षे च तत्सर्वं जाह्नवी स्मृता ॥ कूर्म० (१॥ ३९१८); पन० (११४७७ एवं ५।६०५९); मत्स्य० (१०२१५, तानि ते सन्ति जाह्नवि)।
९. किं यजर्बहुवित्ताव्यः किं तपोभिः सुदुष्करः। स्वर्गमोक्षप्रदा गंगा सुखसौभाग्यपूजिता ॥ पद्म० (५।६०॥ ३९); किमष्टांगेन योगेन किं तपोभिः किमध्वरः । वास एव हि गंगायां सर्वतोपि विशिष्यते ॥ नारदीय० (उत्तर, ३८॥३८); तीर्थचि० (पृ० १९४, गंगायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम्); प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ० ४९४)।
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