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________________ १३२६ धर्मशास्त्र का इतिहास परम्परा सम्भवतः सगर के पुत्रों की गाथा से उत्पन्न हुई है। सगर के पुत्र कपिल ऋषि के क्रोध से भस्म हो गये थे और भगीरथ के प्रयत्न से स्वर्ग से नीचे लायी गयी गंगा के जल से उनकी भस्म बहा दी गयी तब उन्हें रक्षा मिली। इस कथा के लिए देखिए वनपर्व (अध्याय १०७-१०९) एवं विष्णुपुराण (२।८-१०) । नारदीय० के मत से न केवल भस्म हुई अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने से मृत को कल्याण प्राप्त होता है, प्रत्युत नख एवं केश डाल देने से भी कल्याण होता है। स्कन्द० (काशीखण्ड, २७।८०) में आया है कि जो लोग गंगा के तटों पर खड़े होकर दूसरे तीर्थ की प्रशंसा करते हैं या गंगा की प्रशंसा करने या महत्ता गाने में नहीं संलग्न रहते वे नरक में जाते हैं। काशीखण्ड ने आगे व्यवस्था दी है कि विशिष्ट दिनों में गंगास्नान से विशिष्ट एवं अधिक पुण्यफल प्राप्त होते हैं, यथा-- साधारण दिनों की अपेक्षा अमावस पर स्नान करने से सौ गुना फल प्राप्त होता है, संक्रांति पर स्नान करने से सहस्र गुना, सूर्य या चन्द्र के ग्रहण पर स्नान करने से सौ लाख गना और सोमवार के दिन चन्द्रग्रहण पर या रविवार के दिन सूर्य-ग्रहण पर स्नान करने से असंख्य फल प्राप्त होता है।" त्रिस्थली प्रयाग, काशी एवं गया को त्रिस्थली कहा जाता है। प्रसिद्ध विद्वान् पं० नारायण भट्ट (जन्मकाल १५१३ ई.) ने वाराणसी में त्रिस्थलीसेतु नामक ग्रन्थ (लगभग सन १५८० में) लिखा, जिसमें केवल तीन तीर्थों का वर्णन उपस्थित किया गया है। प्रयाग के विषय में १-७२ पृष्ठ, काशी के विषय में ७२-३१६ पृष्ठ और गया के विषय में ३१६-३७९ पष्ठ लिखे गये हैं। हम नीचे इन तीनों तीर्थों का वर्णन उपस्थित करेंगे। प्रयाग गंगा-यमुना के संगम से सम्बन्धित अत्यन्त प्राचीन निर्देशों में एक खिल मन्त्र है, जो बहुधा ऋग्वेद (१०७५) में पढ़ा जाता है और उसका अनुवाद यों है-"जो लोग श्वेत (सित) या कृष्ण (नील या असित) दो नदियों के मिलन-स्थल पर स्नान करते हैं, वे स्वर्ग को उठते (उड़ते) हैं; जो धीर लोग वहाँ अपना शरीर त्याग करते हैं (डूब कर मर जाते हैं), वे मोक्ष पाते हैं।"२१ सम्भवतः यह अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन मन्त्र है। स्कन्दपुराण ने इसे श्रुति १८. तीर्थमन्यत्प्रशंसन्ति गङ्गातीरे स्थिताश्च ये। गंगां न बहु मन्यन्ते ते स्युनिरयगामिनः ॥ स्कन्द० (काशीखण्ड, २७४८०)। १९. दर्शे शतगुणं पुण्यं संक्रान्तौ च सहस्रकम् । चन्द्रसूर्यग्रहे लक्ष व्यतीपाते त्वनन्तकम् ॥ .. .सोमग्रहः सोमदिन रविवारे रवग्रहः। तच्चूडामणिपर्वाख्यं तत्र स्नानमसंख्यकम् ॥ स्कन्द० (काशीखण्ड, २७।१२९-१३१) । २०. त्रयाणां स्थलानां समाहारः त्रिस्थली। २१. सितासिते सरिते यत्र सङ्गते तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति । ये वै तन्वं विसृजन्ति धीरास्ते जनासो अमृतत्वं भजन्ते ॥ त्रिस्थली० (पृ० ३) के मत से यह आश्वलायन शाखा का पूरक श्रुति-वचन है। किन्तु तीर्थचिन्तामणि (पृ० ४७) ने इसे ऋग्वेद का मन्त्र माना है। यह सम्भव है कि इस मन्त्र से आत्महत्या को बढ़ावा नहीं मिलता, प्रत्युत इससे यही भाव प्रकट होता है कि केवल एक बार के स्नान से व्यक्ति स्वर्ग जाता है, और यदि व्यक्ति प्रयाग में मर जाता है तो वह सम्यक ब्रह्मज्ञान के बिना भी मोक्षपद प्राप्त कर लेता है। देखिए रघुवंश (१३१५८), 'तत्त्व बोधेन विनारि भूयस्तनुत्यजा नास्ति शरीरबन्धः' (तीर्यप्र०, पृ० ३१३)। स्कन्द (काशीखण्ड, ७।५४) का कथन है-'भूतिभिः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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