________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
केवल तीर्थयात्रा एवं तीर्थस्नान से कुछ नहीं होता, हृदय परिवर्तन एवं पापकर्म का त्याग परमावश्यक है । इस विषय में महाभारत एवं पुराणों में दो उक्तियाँ हैं; एक उक्ति यह है (जैसा कि हमने ऊपर देख लिया है) कि पवित्र मन ही वास्तविक तीर्थ है और दूसरी यह है कि घर पर रहकर गृहस्थधर्म का पालन करते जाना तथा वैदिक यज्ञादि का सम्पादन करते रहना तीर्थयात्रा से कहीं अच्छा है । शान्तिपर्व ( २६३।४०-४२ ) ने तुलाधार एवं जाजलि (एक ब्राह्मण, जिसे अपने तपों पर गर्व था) के कथनोपकथन का उल्लेख करते हुए कहा है कि पुरोडाश सभी आहुतियों एवं बलियों में पवित्रतम है, सभी नदियाँ सरस्वती के समान पवित्र हैं. सभी पर्वतमालाएँ ( न केवल हिमालय आदि) पवित्र हैं और आत्मा ही तीर्थ है । शान्तिपर्व में जाजलि को समझाया गया है कि वह देश-विदेशों का अतिथि न बने (अर्थात् तीर्थों की खोज में देश-देशान्तर में न घूमे )। तीर्थचिन्तामणि एवं तीर्थप्रकाश ने ब्रह्मपुराण के कथन को उद्धृत कर कहा है कि ब्राह्मण को तभी तीर्थयात्रा करनी चाहिए जब कि वह यज्ञ करने में असमर्थ हो जाय, जब तक इष्टियों एवं यज्ञ करने की सामर्थ्य एवं अधिकार हो तब तक घर में रहकर गृहस्थधर्म का पालन करते रहना चाहिए । अग्निहोत्र के सम्पादन से उत्पन्न फलों के बराबर तीर्थयात्रा फल कभी नहीं है। कूर्म ० ( २/४४ | २० -२३ ) ने इस विषय में ऐसा कहा है— 'जो व्यक्ति अपने धर्मों (कर्तव्यों) को छोड़कर तीर्थ सेवन करता है वह तीर्थयात्रा का फल न तो इस लोक में पाता है और न उस लोक में। प्रायश्चित्ती, विधुर या यायावर लोग तीर्थयात्रा कर सकते हैं। वैदिक अग्नियों या पत्नी के साथ जो व्यक्ति तीर्थयात्रा कर सकता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और सर्वोत्तम लक्ष्य पा सकता है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। जो तीर्थयात्रा करना चाहता है उसे तीनों ऋण चुका देने चाहिए, उसे पुत्रों की जीविका के लिए प्रबन्ध कर देना चाहिए और पत्नी को उनकी रखवाली में रख देना चाहिए।*
१३१२
४२
प्राचीन धर्मशास्त्रकारों ने तीर्थयात्रा का अनुमोदन किया है। विष्णुधर्मसूत्र ( ५1१३२ - १३३ ) में आया है कि वैदिक विद्यार्थियों, वानप्रस्थों, संन्यासियों, गर्भवती नारियों एवं यात्रियों से नाविक या शौल्किक को शुल्क नहीं लेना चाहिए; यदि वे इनसे शुल्क लेते थे तो उन्हें लौटाना पड़ता था । " किन्तु इस व्यवस्था का पालन हिन्दू राजाओं द्वारा भी नहीं किया गया । राजतरंगिणी ( ६।२५४-२५५ एवं ७।१००८) में उल्लेख है कि गया श्राद्ध करने वाले कश्मीरियों पर कर लगता था।" अनहिल्लवाड़ के राजा सिद्धराज (१०९५-११४३ ई०) द्वारा सोमनाथ के यात्रियों पर बाहुलोद नामक नगर की सीमा पर कर लगाया जाता था, जिसे उसकी माता ने बन्द करा दिया। मुसलमान राजाओं द्वारा भी ऐसा कर लगाया जाता था । ऐसा लगता है कि कवीन्द्राचार्य नामक एक बड़े विद्वान् ने शाहजहाँ के समक्ष प्रयाग एवं काशी के यात्रियों के पक्ष में ऐसी सुन्दर उक्तियाँ कहीं कि उसने उन्हें कर मुक्त कर दिया और
४१. गृहस्थ दो प्रकार के होते हैं -- शालीन एवं यायावर । यायावर गृही वह है जो खेतों से अनाज कट जाने के उपरान्त गिरेहुए अनाज को चुनकर जीविका चलाता है, या जो धन एकत्र नहीं करता, या जो पौरोहित्य कार्य, अध्यापन या दान ग्रहण से अपनी जीविका नहीं चलाता। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १७ । तीन ऋणों (देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण) के लिए देखिए यही, खण्ड २, अध्याय ७ एवं ८ ।
४२. ब्रह्मचारिवानप्रस्थभिक्षुगु विणीतीर्थानुसारिणां नाविकः शौल्किकः शुल्कमाददानश्च । तच्च तेषां दद्यात् । विष्णुधर्मसूत्र ( ५1१३२ -१३३ ) ।
४३. काश्मोरिकाणां यः श्राद्ध शुल्कोच्छेता गयान्तरे । सोध्ये रमन्तकः शूरः परिहासपुराश्रयः ॥ बद्ध्वा महाशिलां कण्ठे वितस्ताम्भसि पातितः । राजत० (६।२५४-५५ ) । परिहासपुर के शूर एरमन्तक को, जिसने गया श्राद्ध करनेवाले कश्मीरियों को कर मुक्त कर दिया था, रानी दिद्दा ने गले में पत्थर बंधवाकर वितस्ता नदी में डुबा दिया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org