SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानस - तीर्थ- प्रशंसा, यात्रा कर, यात्रा अनुदान, यात्रा के पूर्वकृत्य १३१३ उनको 'सर्वविद्या निधान' की पदवी दी ।" भारत भर के लोगों को इस कर - मुक्ति पर अतिशय सन्तोष हुआ और कवी - न्द्राचार्य को लोगों ने धन्यवाद के शब्द भेजे और कवित्वमय अभिनन्दनों से उनका सम्मान किया। इन पत्रों एवं अभिनन्दन पत्रों को डा० हरदत्त शर्मा एवं श्री पत्कर ने 'कवीन्द्र चन्द्रोदय' नामक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया है। " होयसल - राज नरसिंह तृतीय ने सन् १२७९ ई० में संस्कृत एवं कन्नड़ में एक ताम्रपत्र खुदवाया, जिसमें यह व्यक्त है कि राजा ने हेब्बाले नामक ग्राम का कर-दान ( जो प्रति वर्ष ६४५ निष्कों के बराबर होता था) काशी एवं श्री विश्वेश्वर देवता के यात्रियों (जिनमें तैलंग, तुलु, तिरहुत, गौड़ आदि देशों के लोग सम्मिलित हैं) को दिया जाता था, जिससे वे तुरुष्कों (मुसलमान बादशाहों) द्वारा लगाये गये करों को दे सकें (देखिए एपिग्रैफिया कर्नाटिका, जिल्द १५, संख्य २९८, पृ० ७१-७३) । तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान करने के निमित्त किये जानेवाले कृत्यों के विषय में निबन्धों ने ब्रह्मपुराण के श्लोक उद्धृत किये हैं । ब्रह्म० ने व्यवस्था दी है कि तीर्थयात्रा के इच्छुक व्यक्ति को एक दिन पूर्व से ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना चाहिए और उपवास करना चाहिए, दूसरे दिन उसे गणेश, देवों, पितरों की पूजा करनी चाहिए और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अच्छे ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहिए तथा लौटने पर भी वैसा ही करना चाहिए।" निबन्धों ने व्याख्या की है कि लौटने पर उपवास एवं गणेश-पूजा नहीं की जाती । व्यक्ति को श्राद्ध करना चाहिए, जिसमें पर्याप्त घृत का उपयोग होना चाहिए, चन्दन, धूप आदि से कम-से-कम तीन ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहिए और उन्हें भी तीर्थयात्रा करने के लिए उद्वेलित करना चाहिए। वायु ० ( ११०।२-३ ) में आया है कि गणेश, ग्रहों एवं नक्षत्रों की पूजा के उपरान्त व्यक्ति को कार्पटी का वेष धारण करना चाहिए, अर्थात् उसे ताम्र की अंगूठी तथा कंगन एवं काषाय रंग के परिधान धारण करने चाहिए । भट्टोजि ( पृ० ५) का कथन है कि कुछ लोगों के मत से कार्यटिक परिधान गया के यात्री को धारण करना चाहिए। पद्मपुराण (४।१९।२२ ) ने अन्य तीर्थों के यात्रियों के लिए भी विशिष्ट परिधानों की व्यवस्था दी है। तीर्थचिन्तामणि ने लिखा है कि ऐसा परिधान तीर्थयात्रा के समय एवं तीर्थों में ही धारण करना चाहिए न कि दैनिक कृत्यों, यथा-- भोजन आदि के समय में ( पृ०९) ४ ४४. देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ४१ (१९१२ ई०) पृ० ७ एवं पृ० ११, जहाँ महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने शाहजहाँ द्वारा दी गयी यात्रा कर की छूट का उल्लेख किया है। ४५. येन श्रीशाहिजाहाँ नरपतितिलकः स्वस्य वश्यः कृतोऽभूत् किचावश्यं प्रपन्नः पुनरपि विहितः शाहिदाराशिकोहः । काशीतीर्थप्रयागप्रतिजनितकरग्राहमोक्षैकहेतुः सोयं श्रीमान्कवीन्द्रो जयति कविगुरुस्तीर्य राजाधिराजः ॥ कवीन्द्रचन्द्रोदय ( पृ० २३, संख्या १६९ ) । ४६. यो यः कश्चित्तीर्थयात्रां तु गच्छेत्सु संयतः स च पूर्वं गृहे स्वे । कृतोपवासः शुचिरप्रमत्तः सम्पूजयेद् भक्तिनो गणेशम् ॥ देवान् पितॄन् ब्राह्मणांश्चैव साधून् धीमान् पितृन् ब्राह्मणान् पूजयेच्च । प्रत्यागतश्चापि पुनस्तथैव देवान् पितृन् ब्राह्मणान् पूजयेच्च ॥ ब्रह्मपुराण (तीर्थकल्प० पृ० ९); तीर्थचिन्तामणि ( पृ० ६, 'सुसंयत इति पूर्वदिने कृतंकभक्ताविनियमः ' ) ; तीर्थप्र० (१० २३ 'सुसंयतः पूर्वदिने कृतैकभक्तादिनियम इति केचित् ब्रह्मचर्यादियुक्त इति तु युक्तम्')। ये श्लोक नारदीयपुराण (उत्तर, ६२।२४-२५) में भी आये हैं। और देखिए स्कन्द० ( काशीखण्ड, ६।५६-५७), पद्म० ( उत्तर०, २३७ ३६-३८), ब्रह्म० ( ७६।१८-१९ ) । ४७. उद्यतश्चेद् गयां गन्तुं श्राद्धं कृत्वा विधानतः । विधाय कार्पटीवेषं कृत्वा ग्रामं प्रदक्षिणम् । ततो ग्रामान्तरं गत्वा श्राद्धशेषस्य भोजनम् ।। वायु० ( ११०।२-३), तीर्थचि० (१०७) । तीर्थप्रकाश (पू० २९ ) ने व्याख्या की है- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy