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तीर्थयात्रा में पति-पत्नी का साहित्य और स्त्री-शूत्रों का अधिकार-विचार प्रस्थ एवं संन्यास) के लोग तीर्य में स्नान कर कुल की सात पीढ़ियों की रक्षा करते हैं; चारों वर्गों के लोग एवं स्त्रियाँ भक्तिपूर्वक स्नान करने से परमोच्च ध्येय का दर्शन करती हैं। ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि ब्रह्मचारी गुरु की आज्ञा या सहमति से तीर्थयात्रा कर सकते हैं, गृहस्थ को अपनी पतिव्रता स्त्री के साथ (यदि वह जीवित हो) तीर्थयात्रा अवश्य करनी चाहिए, नहीं तो उसे तीर्थयात्रा का फल नहीं प्राप्त हो सकता। देखिए, पद्मपुराण (भमिखण्ड, अध्याय ५९-६०), जहाँ कृकल की गाथा कही गयी है। कृकल ने अपनी पतिव्रता पत्नी के बिना तीर्थयात्रा की थी इसी से उसे लम्बी तीर्थयात्रा का भी फल नहीं मिला (भार्या विना हि यो धर्मः स एव विफलो भवेत्, ५९।३३) । तीर्थचिन्तामणि एवं तीर्थप्रकाश ने कूर्मपुराण का उद्धरण देकर वाराणसी (अविमुक्त) की महत्ता निम्न रूप से प्रकट की है - 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्रियाँ, म्लेच्छ और वे लोग जो संकीर्ण रूप में पापयोनियों में उत्पन्न हुए हैं, कीट, चीटियाँ, पक्षि-पशु आदि जब अविमुक्त (वाराणसी) में मरते हैं तो वहाँ वे मानव रूप में जन्म लेते हैं तथा अविमुक्त में जो पापी मनुष्य मरते हैं वे नरक में नहीं जाते हैं।' स्त्रियों एवं शूद्रों के विषय में एक स्मृति-वचन है-'जप, तप, तीर्थयात्रा, प्रव्रज्या (संन्यास-ग्रहण), मन्त्रसाधन एवं देवताराधन (पुरोहित रूप में)--ये छः स्त्रियों एवं शूद्रों को पाप की ओर ले जाते हैं (अर्थात् ये उनके लिए वजित हैं)।“ इस कथन की व्याख्या की गयी है और कहा गया है कि यहाँ जो स्त्रियों को ती यात्रा के लिए मना किया गया है वह केवल पति की आज्ञा बिना जाने की ओर संकेत करता है, और शूद्रों के विषय में यह बात है, जैसा कि मनु (१०।१२३) ने कहा है, विद्वान् ब्राह्मणों की सेवा करना ही उनका प्रमुख कर्तव्य है। यदि वे तीर्थयात्रा करते हैं तो यह उनके कर्तव्य के विरुद्ध पड़ता है। कात्यायन (व्यवहारमयूख, पृ० ११३) ने व्यवस्था दी है-'नारी जो कुछ करती है वह उसके भविष्य (के पुण्यफल) से संबंधित है, जो बिना पिता (श्वशुर), पति या पुत्र की अनुमति के विफल होता है। इससे स्पष्ट होता है कि आरम्भिक काल में सभी वर्गों के पुरुषों एवं नारियों का तीर्थयात्रा करना पापों से छुटकारा पाने के लिए अच्छा समझा जाता था। यद्यपि पति की सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर नारी का स्वामित्व सीमित होता है, किन्तु न्यायालय के निर्णयों से स्पष्ट है कि वह पति की सम्पत्ति का एक अल्प अंश पति के गयाश्राद्ध में या पण्ढरपुर की तीर्थयात्रा में खर्च कर सकती है। पवित्र तीर्थों में स्नान करते समय छआछत का विचार नहीं किया जाता।
३७. ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये वर्णसंकराः। स्त्रियो म्लेच्छाश्च ये चान्ये संकीर्णाः पापयोनयः॥ कीटाः पिपीलिकाश्चैव ये चान्ये मृगपक्षिणः। कालेन निधनं प्राप्ता अविमुक्ते वरानने ॥... शिवे मम पुरे देवि जायन्ते तत्र मानवाः। नाविमुक्ते मृतः कश्चिन्नरक याति किल्विषो । कूर्म० (१॥३१॥३२-३४); मत्स्य० (१८१।१९-२१); तीर्यचि० (पृ० ३४६) । तीर्थप्र० (१.० १३९) ने कूर्म० को उद्धृत किया है और जोड़ा है-'नाविमुक्तमृतः कश्चिन्नरक याति किल्विषो।' कूर्म० (१।३१।३१-३४); तीर्थचि० (पृ० ३४६) एवं तीर्थप्र० (पृ० १३९) । यही श्लोक पद्म० (१।३३।१८-२१) में भी है।
___३८. जपस्तपस्तीर्थयात्रा प्रवज्या मन्त्रसाधनम्। देवताराधनं चेति स्त्रीशूद्रपतनानि षट् ॥ तीर्थप्रकाश (पृ० २१); त्रिस्थलीसेतुसारसंग्रह (पृ० २) में भट्टोजि ने इसे मनु की उक्ति कहा है।
३९. नारी खल्वननुज्ञाता पित्रा भर्ना सुतेन वा। विफलं तद् भवेत्तस्या यत्करोत्यौलदेहिकम् ॥ कात्या० (व्य० मयूख, पृ० ११३)। हेमाद्रिकृत चतुर्वर्गचिन्तामणि (क्त, १, पृ० ३२७) ने इसे आदित्यपुराण का श्लोक माना है और 'और्वदेहिकम्' को वतानि' के अर्थ में लिया है।
४०. तीर्ये विवाहे यात्रायां संग्रामे देशविप्लवे । नगरप्रामदाहे च स्पृष्टास्पष्टिर्न दुष्यति ॥बृहस्पति (कल्पतर, शुद्धि, पृ० १६९; स्मृतिच० १, ५० १२२) ।
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