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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास १३१० हो सकती है; ब्रह्मज्ञान, गयाश्राद्ध, छीनकर या भगाकर ले जायी जाती गायों को बचाने में मरण, कुरुक्षेत्र में निवास । जो कुरुक्षेत्र में मर जाते हैं वे पुनः पृथिवी पर लौटकर नहीं आते हैं।"" काशी में निवास मात्र की इतनी प्रशंसा के विषय में मत्स्य ० ( १८१।२३), अग्नि० ( ११२ । ३) एवं अन्य पुराणों ने इतना कह डाला है कि काशी में जाने के उपरान्त व्यक्ति को अपने पैरों को पत्थर से कुचल डालना चाहिए ( जिससे कि वह अन्य तीर्थों में न जा सके ) और सदा के लिए काशी में ही रह जाना चाहिए। " ब्रह्मपुराण ने तीर्थों को चार कोटियों में बाँटा है -- देव ( देवों द्वारा उत्पन्न ), आसुर ( जो गय, बलि जैसे असुरों से संबंधित हैं), आर्ष ( ऋषियों द्वारा संस्थापित, यथा-प्रभास, नरनारायण) एवं मानुष ( अम्बरीष, मनु, कुरु आदि राजाओं द्वारा निर्मित ), जिनमें प्रत्येक पूर्ववर्ती अपने अनुवर्ती से उत्तम है ।" ब्रह्मपुराण ने विन्ध्य के दक्षिण की छ: नदियों और हिमालय से निर्गत छ: नदियों को देवतीर्थों में सबसे अधिक पुनीत माना है, यथा--गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेणिका, तापी, पयोष्णी; भागीरथी, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशोका एवं वितस्ता । इसी प्रकार काशी, पुष्कर एवं प्रभास देवतीर्थ हैं ( तीर्थप्रकाश, पृ० १८ ) । ब्रह्म० ( १७५।३१।३२ ) ने दैव, आसुर आर्ष एवं मानुष तीर्थों को क्रम से कृत (सत्य), त्रेता, द्वापर एवं कलि नामक युगों से सम्बन्धित माना है । उन लोगों के विषय में, जो तीर्थयात्रा के अधिकारी हैं या इसके योग्य हैं, पुराणों एवं निबन्धों ने विशद विवेचन उपस्थित किया है। वनपर्व ( ८२।३०-३१ एवं तीर्थप्र०, पृ० १९) में आया है कि वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, जो तीर्थों में स्नान कर लेते हैं, पुनः जन्म नहीं लेते। वहीं ( ८२१३३ - ३४ ) यह भी कहा गया है कि जो स्त्री या पुरुष एक बार भी पवित्र पुष्कर में स्नान करता है वह जन्म से किये गये पापों से मुक्त हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि स्त्रियों को भी तीर्थयात्रा करने का अधिकार था । मत्स्य ० ( १८४।६६-६७ ) ने आगे कहा है कि नाना प्रकार के वर्णों, विवर्णों (जिनकी कोई जाति या वर्ण न हो, अर्थात् जो अज्ञातवर्ण हैं), चाण्डालों (जिन्हें सब लोग घृणा की दृष्टि से देखते हैं) और भांति-भांति के रोगों एवं बढ़े हुए पापों से युक्त व्यक्तियों के लिए अविमुक्त (वाराणसी) सबसे बड़ी औषध है । और देखिए कूर्म० ( १।३१।४२-४३ ), तीर्थकल्प ० ( पृ० २६ ), तीर्थप्रकाश ( पृ० १४० ) एवं तीर्थचिन्तामणि ( पृ० १४० ) । वामन० ( ३६।७८-७९ ) में आया है -- सभी आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वान अर्थ' 'संसारबन्ध' किया गया है); तीर्थचिन्तामणि ( पृ० ३४५ ) ; लिंगपुराण ( १ ९२/६३ एवं ९४ ) और स्कन्द० ( काशीखण्ड, २५२६७ ) । ३४. ब्रह्मज्ञानं गवाश्राद्धं गोत्र हे मरणं ध्रुवम् । वासः पुंसां कुरुक्षेत्रे मुक्तिरुक्ता चतुविधा । ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद् भयम् । कुरुक्षेत्र वृतानां च पतनं नैव विद्यते ॥ वामन० (३३।८ एवं १६) । प्रथम श्लोक वायु० ( १०५ । १६ ) एवं अग्नि० ( ११५।५-६ ) में भी आया है। ३५. अश्मना चरणौ हत्वा वसेत्काशीं न हि त्यजेत् । अग्नि० (११२।३ ) ; अविमुक्त ं यदा गच्छेत् कदाचित्कालपर्ययात् । अश्मना चरणौ भित्त्वा तत्रैव निधनं व्रजेत् ॥ मत्स्य० ( १८१।२३ ) ; तीर्यकल्प ० ( १० १६ ) ; अश्मना चरणी हत्वा वाराणस्यां वसेन्नरः । कूर्म० ( ११३ ११३५ ) ; तीर्थप्र० ( पृ० १४० ) । ३६. चतुविधानि तीर्थानि स्वर्गे मध्ये रसातले । देवानि मुनिशार्दूल आसुराज्यारुषाणि च ॥ मानुषाणि त्रिलोकेषु विपातानि सुरादिभिः । ब्रह्मविष्णुशिवैर्देवै निर्मितं देवमुच्यते ॥ ब्रह्म० ( ७०1१६-१९ ) ; तीर्थप्रकाश (१०१८ जिसमें ब्रह्म० ७०1३०-५५ में उल्लिखित १२ नदियों अर्थात देवतीयों के नाम दिये गये हैं)। 'आरुष' का अर्थ है आर्ष । arat की व्याख्या के लिए देखिए ब्रह्म० ( ७०1३३-४०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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